मंगलेश डबराल की एक कविता
आंखें
आंखें संसार के सबसे सुंदर दृश्य हैं
इसीलिए उनमें दिखने वाले दृश्य और भी सुंदर हो उठते हैं
उनमें एक पेड़ सिहरता है एक बादल उड़ता है नीला रंग प्रकट होता है
सहसा अतीत की कोई चमक लौटती है
या कुछ ऐसी चीज़ें झलक उठती हैं जो दुनिया में अभी आने को हैं
वे दो पृथ्वियों की तरह हैं
प्रेम से भरी हुई जब वे दूसरी आंखों को देखती हैं
तो देखते ही देखते कट जाते हैं लंबे और बुरे दिन
यह एक पुरानी कहानी है
कौन जानता है इस बीच उन्हें क्या-क्या देखना पड़ा
और दुनिया में सुंदर चीज़ें किस तरह नष्ट होती चली गईं
अब उनमें दिखता है एक ढहा हुआ घर कुछ हिलती-डुलती छायाएं
एक पुरानी लालटेन जिसका कांच काला पड़ गया है
वे प्रकाश सोखती रहती हैं कुछ नहीं कहतीं
सतत आश्चर्य में खुली रहती हैं
चेहरे पर शोभा की वस्तुएं किसी विज्ञापन में सजी हुई ।
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(समकालीन सृजन के ‘कविता इस समय’ अंक से साभार)
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मेरा एक ट्रेन कंट्रोलर है आगरा में – सरवर अली. फोन पर बात होने पर दो लाइनें जरूर सुनाता है/या मै अनुरोध करता हूं सुनाने को.
एक दिन सुनाया :
तुम तो समन्दर की बात करते हो,
लोग आंखों में डूब जाते हैं.
By: Gyandutt Pandey on जून 5, 2007
at 10:45 पूर्वाह्न
सुंदर कविता । ज्ञान दत्त जी की बात से दुष्यंत का शेर याद आ गया, अपने को कुछ ज्यादा ही पसंद है । एक जंगल है तेरी आंखों में जिसमें मैं खो जाता हूं, तू किसी रेल सी गुजरती है, मैं किसी पुल सा थरथराता हूं ।
आपसे एक निवेदन है । कई बरस पहले एकांत श्रीवास्तव की कुछ कविताएं आई थीं रंगों पर । पीला हरा लाल सफेद । सब पर अलग अलग । क्या आप उन्हें प्रस्तुत करेंगे । मेरे भीतर जाने कब से विकलता है उन्हें पढ़ने की ।
By: yunus on जून 5, 2007
at 1:10 अपराह्न
मंगलेश डबराल की कविता आँखे बहुत भाई. धन्यवाद प्रियंकर जी इस पेशकश के लिये भी हमेशा की तरह.
By: समीर लाल on जून 5, 2007
at 2:41 अपराह्न
हाज़िरी बजा रहा हूं…
By: प्रमोद सिंह on जून 5, 2007
at 5:27 अपराह्न
मंगलेश डबराल की कविता आँखें, आँखें खोलने वाली है।
वे दो पृथ्वियों की तरह हैं
प्रेम से भरी हुई जब वे दूसरी आंखों को देखती हैं
तो देखते ही देखते कट जाते हैं लंबे और बुरे दिन
काश। मंगलेश डबराल आँखों के माध्यम से जो दिखाना चाह रहे हैं, हम देख सकें।
By: हेमेन्द्र कुमार राय on जून 5, 2007
at 7:37 अपराह्न