केदारनाथ सिंह की एक कविता
मातृभाषा
जैसे चींटियां लौटती हैं
बिलों में
कठफोड़वा लौटता है
काठ के पास
वायुयान लौटते हैं एक के बाद एक
लाल आसमान में डैने पसारे हुए
हवाई अड्डे की ओर
ओ मेरी भाषा
मैं लौटता हूं तुम में
जब चुप रहते-रहते
अकड़ जाती है मेरी जीभ
दुखने लगती है
मेरी आत्मा ।
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केदारनाथजी जैसे वरिष्ट कवि को १९६७ में मातृभाषा नहीं दिखी । कम्युनिस्ट पार्टियों को तब
भाषा का सवाल समझ में नहीं आ रहा था। एस.यू.सी जैसे समूह तो ऐलानिया अंग्रेजी के हक़ में
थे।
By: अफ़लातून on अगस्त 28, 2008
at 2:30 अपराह्न
बहुत सुंदर कविता है।
मातृभाषा होती ही है ऐसी।
लेकिन हम मातृभाषा का ऋण कब चुकाएंगे?
कब इसे आजाद कराएंगे अंगरेजी की चाकरी से?
By: अशोक पाण्डेय on अगस्त 28, 2008
at 2:58 अपराह्न
और हां, अफलातून जी की टिप्पणी पढ़कर कुछ आशा जगी।
By: अशोक पाण्डेय on अगस्त 28, 2008
at 3:04 अपराह्न
Bahut sunder
O meri bhasha main lauttahoon tum men jab chup rahte rahate akad jati hai meri jeebh ya
angreji bolat bolate kadwi ho jatee hai meri jeebh. Man tum men lautta hoon.
By: Asha Joglekar on अगस्त 28, 2008
at 3:06 अपराह्न
बहुत उम्दा..आभार इस प्रस्तुति के लिए.
By: sameerlal on अगस्त 28, 2008
at 3:48 अपराह्न
बहुत सुंदर कविता.
कवि हैं
कहाँ-कहाँ देखेंगे?
हमारे जैसे नहीं हैं
हमारी दो दर्जन आँखें हैं
हम कवि और कविता में राजनीति खोज लेते हैं
राजनीति में कविता खोज लेते हैं
कल राजनीति को उलाहना देते थे
आज कविता को उलाहना देते हैं
क्यों नहीं देंगे?
दो दर्जन आंखों के मालिक जो हैं
By: रामाधार on अगस्त 28, 2008
at 4:21 अपराह्न
ओ मेरी भाषा … ये पंक्तियाँ हमेशा चमत्कृत करती हैं । अपनी एक कहानी में मैंने इन पंक्तियों को उद्धरित किया था और केदारनाथ जी के उस कहानी पर फोन ने उस कहानी की सार्थकता बढ़ा दी थी। इन्हें पढ़ना हमेशा अच्छा लगता है ।
By: pratyaksha on अगस्त 28, 2008
at 4:22 अपराह्न
ओ मेरी भाषा
मैं लौटता हूं तुम में
जब चुप रहते-रहते
अकड़ जाती है मेरी जीभ
दुखने लगती है
मेरी आत्मा ।
अपनी भाषा, अपना घर, अपना परिवार, अपना खून…| यह मोहताज नहीं है किसी औपचारिकता का, सायास कोशिश का, या किसी ढिढोरे का। यह तो नैसर्गिक है, जो सदैव सुख-सुविधा ही देगा। हम उधर ध्यान नहीं दे रहे हों, तब भी; वह हमारा खयाल रखता ही जाएगा। अलबत्ता उसे बीमारियों से बचाए रखने का जिम्मा हमारा है।
By: सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी on अगस्त 29, 2008
at 4:02 पूर्वाह्न
अपनी भाषा की ताकत का
ऐसा संवेदनशील बयान,दरअसल
ये केदार जी की कला से ही मुमकिन है.
उनसे मेरी मुलाक़ात मेरे अपने शहर
राजनांदगांव के दिग्विजय कालेज में हुई थी
जहाँ कभी मुक्तिबोध प्राध्यापक रहे और जहाँ
मुक्तिबोध स्मारक की स्थापना भी की गयी है.
संयोग यह भी है कि
मैं स्वयं इस महाविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्राध्यापक हूँ.
समारोह में केदार जी को प्रस्तुत करने का गौरव भी मुझे मिला था.
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शुक्रिया…आपने इस प्रस्तुति से वाह याद ताज़ा कर दी.
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
By: DR. CHANDRAKUMAR JAIN on अगस्त 31, 2008
at 9:23 पूर्वाह्न
ओ मेरी भाषा
मैं लौटता हूं तुम में
जब चुप रहते-रहते
अकड़ जाती है मेरी जीभ
दुखने लगती है
मेरी आत्मा ।
बहुत सुंदर प्रस्तुति, शुक्रिया.
By: S.B.Singh on सितम्बर 21, 2008
at 9:35 पूर्वाह्न
बहुत सुंदर कविता है।
By: SHUAIB on अक्टूबर 6, 2008
at 11:26 पूर्वाह्न
हां, अपनी भाषा में लौटना अपनी जबान को फिर से हासिल करना है। इसी में हमारी ताकत है,
और प्रतिरोध भी। और आत्मा भी। सुंदर कविता देने के लिए बधाई।
By: ravindra vyas on अक्टूबर 16, 2008
at 1:32 अपराह्न
सुन्दर कविता है। परन्तु अफलातून जी का प्रश्न भी उत्तर माँग रहा है।
मैं तो नेट व ब्लॉगिंग की आभारी हूँ कि उसने मुझे फिर से हिन्दी से जोड़ा।
घुघूती बासूती
By: ghughutibasuti on जनवरी 15, 2009
at 10:37 पूर्वाह्न
प्रियकंर जी,
आपके इस ब्लाग पर नियमित आता हूँ …पर कोई नई पोस्ट ना दिखने से खाली हाथ वापस चला जाता हूँ
एक बारी तो मुझे लगा कहीं आप अपने ब्लाग का login/password तो नहीं भूल गये…
आपके इस ब्लाग के माध्यम से हमे उत्कृष्ट कवितायें पढ़ने को मिलती हैं…कृपया श्रंखला जारी रखें….धन्यवाद
रीतेश गुप्ता
By: Reetesh Gupta on जनवरी 15, 2009
at 1:47 अपराह्न
इसीलिए आप केदारनाथ हो……आपको प्रणाम……….!!
By: (bhootnath)rajeev thepra on जनवरी 29, 2009
at 5:00 अपराह्न