Posted by: PRIYANKAR | मार्च 4, 2011

बांग्ला कवि विनय मजूमदार की एक कविता



विनय मजूमदार (1934-2006)

(बांग्ला से अनुवाद एवं प्रस्तुति : नीलकमल)



अकाल्पनिक

तुम्हारे भीतर आऊंगा, हे नगरी, कभी-कभी चुपचाप
बसन्त में कभी, कभी बरसात में
जब दबे हुए ईर्ष्या-द्वेष
पराजित होंगे इस क़लम के आगे
तब, जैसा कि तुमने चाहा था, एक सोने का हार भी लाऊंगा उपहार।
तुम्हारा सर्वांग ज्यों इश्तहार
यौवन के बाज़ार का, फिर भी तुम्हारे पास आकर
महसूस होता है, जैसे तुम्हारी अपनी
एक तहज़ीब है, सिर्फ़ तुम्हारी, और जो आदमी के भीतर की
चिरन्तन वृत्ति का प्रकाश भी है।
हे नगरी, महज कुछ-एक बार तुम्हारे भीतर आना
यह एहसास देता है कि जैसे तीनों-लोक में
नहीं कोई भी तुम्हारे जैसा, तुम्हारा नशा, तुम्हारी देह, तुम्हारी बातें, और तुम्हारा स्वाद है ऐसा।

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प्रतिक्रियाएँ

  1. बहुत सुन्दर भाव कविता के, वैसा ही सुन्दर अनुवाद।

  2. सर्पर्थम दिवंगत पुणे आतां अमर कवि ” विनय मजुमदार जी ” को श्रधांजलि !
    बेहद सुंदर कविता है . नील कमल जी , साधुवाद .हमे इस प्रक्कर और रचनाये प्रदान करते रहेगे ये कामना है .
    सादर

  3. यह नगरी कहां है – अरण्य़ के समीप है कि नहीं? नहीं तो ज्यादा तहज्ीब बहुत खुरदरी होती है!

  4. Tasveer se Nagarjun ka aur kavita se Agyeya ka bhram hua. Kavita ko manusyata ki bhasha youn hi nahi kaha gaya hai.Jati,Dharm,Rang aur Ling ke nirarthak samajik bhed se mukta kavita hi manushya ka abhipret hai.Sahitya dwara duniya ko behtar banane ki yah antarkriya chalate rahana jaroori hai.Hinsa aur bhrastachar ke pradushan se dum band hote jagat ko sahitya ka filter hi bacha sakta hai. AACHE CHAYAN AUR ANUWAD KE LIYE BADHAI AUR AABHAAR. –Mahesh Jaiswal

  5. yah anuvad apne blog par lekar bada achchha kiya .
    binoy majumdar ki kul 5 kavitayon ka anuvad maine
    apne blog http://neelkamal1710.blogspot.com par post
    kiya hai.


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