घास
बस्ती वीरानों पर यकसां फैल रही है घास
उससे पूछा क्यों उदास हो कुछ तो होगा खास
कहां गए सब घोड़े अचरज में डूबी है घास
घास ने खाए घोड़े या घोड़ों ने खाई घास
सारी दुनिया को था जिनके कब्जे का अहसास
उनके पते ठिकानों तक पर फैल चुकी है घास
धरती पानी की जाई सूरज की खासमखास
फिर भी कदमों तले बिछी कुछ कहती है यह घास
धरती भर भूगोल घास का तिनके भर इतिहास
घास से पहले, घास यहां थी, बाद में होगी घास ।
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कवि का फोटो इरफ़ान के ब्लॉग टूटी हुई बिखरी हुई से साभार
अच्छी लगी
By: pratyaksha26 on अगस्त 23, 2006
at 4:17 पूर्वाह्न
प्रियंकर भाई,
स्वागत है। चिट्ठा बहुत सुन्दर दिख रहा है।
लगे रहिए, लगातार लिखते रहिए।
वो कहते है ना बूंद बूंद से भरता सागर
(आपका एक लेख, ‘वैब पर हिन्दी’ के सागर असीम योगदान करेगा।)
By: Jitu on अगस्त 23, 2006
at 9:29 पूर्वाह्न
नमस्ते प्रियँकर जी,दोनो कवितायेँ रुचिकर हैँ.आशा है आगे भी बेहतर कवितायेँ पढने को मिलती रहेँगी.
By: Rachana on अगस्त 28, 2006
at 8:33 पूर्वाह्न
प्रत्यक्षा,जीतू भाई और रचना — आप सभी ने हिम्मत बढाई सो बहुत-बहुत शुक्रिया . आशा है आप समय-समय पर ‘अनहदनाद’ पर आते रहेंगे और इसे अपने प्रिय चिट्ठों की सूची में स्थान देंगे .
By: प्रियंकर on अक्टूबर 5, 2006
at 6:50 पूर्वाह्न
नरेश सक्सेना को पढ़ना तो बहुत सुखद रहा ।
By: अफ़लातून on जुलाई 27, 2009
at 1:15 पूर्वाह्न