दीवारें
अब मैं एक छोटे-से घर
और बहुत बड़ी दुनिया में रहता हूं
कभी मैं एक बहुत बड़े घर
और छोटी-सी दुनिया में रहता था
कम दीवारों से
बड़ा फ़र्क पड़ता है
दीवारें न हों
तो दुनिया से भी बड़ा हो जाता है घर ।
***
दीवारें
अब मैं एक छोटे-से घर
और बहुत बड़ी दुनिया में रहता हूं
कभी मैं एक बहुत बड़े घर
और छोटी-सी दुनिया में रहता था
कम दीवारों से
बड़ा फ़र्क पड़ता है
दीवारें न हों
तो दुनिया से भी बड़ा हो जाता है घर ।
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कविताएं/Poems में प्रकाशित किया गया | टैग: कुंवर नारायण
सुन्दर और भावपूर्ण।
By: ratna on अगस्त 29, 2006
at 2:05 अपराह्न
अति सुन्दर !! क्या मै इस कविता को परिचर्चा पर “काव्यान्तक्षरी” के एक थ्रेड ‘हमारा घर’ के लिये ले सकती हूँ?
By: Rachana on सितम्बर 1, 2006
at 12:03 अपराह्न
रत्ना और रचना – तुला राशि की दोनों चिट्ठाकारों को उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु बहुत-बहुत धन्यवाद . यदि ‘समकालीन सृजन’ पत्रिका के संपादक मण्डल के सदस्य के रूप में ( जिसके ताज़ा अंक ‘कविता इस समय’ से यह कविता ली गई है ) मुझे ऐसा कहने का अधिकार है तो आप काव्य-अंताक्षरी हेतु यह कविता ले सकती हैं . किसी कविता को ज्यादा से ज्यादा लोग पढें इससे अच्छा और क्या हो सकता है .
By: प्रियंकर on अक्टूबर 5, 2006
at 7:00 पूर्वाह्न
वाह! अद्भुत.
कुंवरनारायण जी ही इतने कम शब्दों में ऐसी गहरी बात कह सकते हैं.
आभार आपका कि आपने यह खूबसूरत कविता पढवाई.
By: डॉ दुर्गाप्रसाद on जुलाई 27, 2009
at 3:21 अपराह्न
कुँवरनारायण की कम दीवारों की दुनिया ।
By: अफ़लातून on जुलाई 31, 2009
at 1:36 पूर्वाह्न