Posted by: PRIYANKAR | अगस्त 29, 2006

कुंवर नारायण की एक कविता

 

दीवारें

 

 

अब मैं एक छोटे-से घर

और बहुत बड़ी दुनिया में रहता हूं

 

कभी मैं एक बहुत बड़े घर

और छोटी-सी दुनिया में रहता था

 

कम दीवारों से 

बड़ा फ़र्क पड़ता है

 

दीवारें न हों

तो दुनिया से भी बड़ा हो जाता है घर ।

 

***

 

Advertisement

Responses

  1. सुन्दर और भावपूर्ण।

  2. अति सुन्दर !! क्या मै इस कविता को परिचर्चा पर “काव्यान्तक्षरी” के एक थ्रेड ‘हमारा घर’ के लिये ले सकती हूँ?

  3. रत्ना और रचना – तुला राशि की दोनों चिट्ठाकारों को उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु बहुत-बहुत धन्यवाद . यदि ‘समकालीन सृजन’ पत्रिका के संपादक मण्डल के सदस्य के रूप में ( जिसके ताज़ा अंक ‘कविता इस समय’ से यह कविता ली गई है ) मुझे ऐसा कहने का अधिकार है तो आप काव्य-अंताक्षरी हेतु यह कविता ले सकती हैं . किसी कविता को ज्यादा से ज्यादा लोग पढें इससे अच्छा और क्या हो सकता है .

  4. वाह! अद्भुत.
    कुंवरनारायण जी ही इतने कम शब्दों में ऐसी गहरी बात कह सकते हैं.
    आभार आपका कि आपने यह खूबसूरत कविता पढवाई.

  5. कुँवरनारायण की कम दीवारों की दुनिया ।


एक उत्तर दें

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  बदले )

Twitter picture

You are commenting using your Twitter account. Log Out /  बदले )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  बदले )

Connecting to %s

श्रेणी

%d bloggers like this: