हिंदी के बारे में एक हिंदी कवि का बयान
(कवि मित्र के. सच्चिदानंदन के लिए)
मेरी भाषा के लोग
मेरी सड़क के लोग हैं
सड़क के लोग सारी दुनिया के लोग
पिछली रात मैंने एक सपना देखा
कि दुनिया के सारे लोग
एक बस में बैठे हैं
और हिंदी बोल रहे हैं
फिर वह पीली-सी बस
हवा में गायब हो गई
और मेरे पास बच गई सिर्फ़ मेरी हिंदी
जो अंतिम सिक्के की तरह
हमेशा बच जाती है मेरे पास
हर मुश्किल में
कहती वह कुछ नहीं
पर बिना कहे भी जानती है मेरी जीभ
कि उसकी खाल पर चोटों के
कितने निशान हैं
कि आती नहीं नींद उसकी कई संज्ञाओं को
दुखते हैं अक्सर कई विशेषण
पर इन सबके बीच
असंख्य होठों पर
एक छोटी-सी खुशी से थरथराती रहती है यह !
तुम झांक आओ सारे सरकारी कार्यालय
पूछ लो मेज से
दीवारों से पूछ लो
छान डालो फ़ाइलों के ऊंचे-ऊंचे
मनहूस पहाड़
कहीं मिलेगा ही नहीं
इसका एक भी अक्षर
और यह नहीं जानती इसके लिए
अगर ईश्वर को नहीं
तो फिर किसे धन्यवाद दे !
मेरा अनुरोध है —
भरे चौराहे पर करबद्ध अनुरोध —
कि राज नहीं — भाषा
भाषा — भाषा — सिर्फ़ भाषा रहने दो
मेरी भाषा को ।
इसमें भरा है
पास-पड़ोस और दूर-दराज़ की
इतनी आवाजों का बूंद-बूंद अर्क
कि मैं जब भी इसे बोलता हूं
तो कहीं गहरे
अरबी तुर्की बांग्ला तेलुगु
यहां तक कि एक पत्ती के
हिलने की आवाज भी
सब बोलता हूं जरा-जरा
जब बोलता हूं हिंदी
पर जब भी बोलता हूं
यह लगता है —
पूरे व्याकरण में
एक कारक की बेचैनी हूं
एक तद्भव का दुख
तत्सम के पड़ोस में ।
*****
साभार: कविता इस समय
(समकालीन सृजन का हिंदी कविता पर केन्द्रित विशेष अंक)
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हिन्दी के दर्द तथा हिन्दी के प्रति प्रेम को सही रूपमें अभिव्यक्त करती कविता.
By: संजय बेंगाणी on अक्टूबर 5, 2006
at 11:59 पूर्वाह्न
[…] प्रियंकर पेश कर रहे हैं प्रसिद्ध कवि केदारनाथ सिंह की एक मर्मस्पर्शी कविता पिछली रात मैंने एक सपना देखा कि दुनिया के सारे लोग एक बस में बैठे हैं और हिंदी बोल रहे हैं फिर वह पीली-सी बस हवा में गायब हो गई और मेरे पास बच गई सिर्फ़ मेरी हिंदी जो अंतिम सिक्के की तरह हमेशा बच जाती है मेरे पास हर मुश्किल में […]
By: DesiPundit » Archives » मेरी भाषा के लोग on अक्टूबर 5, 2006
at 1:27 अपराह्न
बहुत ही सुंदर है आपने अपनी दिल की बात कवीता मे ढाला है – बहुत बढिया
By: SHUAIB on अक्टूबर 6, 2006
at 5:07 पूर्वाह्न
प्रियंकर जी,
मान गये हिन्दी के प्रति आपका लगाव बहुत खूबी से इस कविता में झलक पडती है…
…हमारी जानिब से दाद कबूल फरमायें…शुक्रिया
फिजा़
By: Dawn on अक्टूबर 7, 2006
at 1:18 पूर्वाह्न
आपकी टिप्पणी रविंद्रनाथ टैगोर जी की कहावत के साथ वाकई बहुत अच्छी लगी
बहुत गहरी बात समझा गये…उम्मीद है आगे भी आते रहेंगे..
शुक्रिया
फिजा़
http://www.fizaa.blogspot.com
By: Dawn on अक्टूबर 7, 2006
at 1:24 पूर्वाह्न
TtnJNV comment2 ,
By: Xaucmhry on मई 8, 2009
at 10:36 पूर्वाह्न
दो वर्ष पूर्व केदार जी को मैने एक पत्र लिखा था इस कविता के बारे मे. केदार जी पिछले साल यहाँ आये थे और उन्होने रायपुर और दुर्ग मे मेरे नाम के साथ उस पत्र का ज़िक्र करते हुए इस कविता का पाठ किया
“मेरा अनुरोध है —
भरे चौराहे पर करबद्ध अनुरोध —
कि राज नहीं — भाषा
भाषा — भाषा — सिर्फ़ भाषा रहने दो
मेरी भाषा को ”
बताइये इन पंक्तियों का कोई जवाब है?
.
By: sharad kokas on अगस्त 9, 2009
at 9:03 अपराह्न
2004 से ही आपकी कविताओँ के जादुई असर को महसूस कर रहा हूँ। आपकी भाषा मुझे काफी असरदार लगती है। आपकी ‘बाघ’ कविता श्रृंखला का असर दिमाग पर कई दिनो तक रहा। आपकी कविताओँ पर लिखने का मन है। स्थिर होने पर वह मुराद भी पूरी करुँगा। 2005-06 मेँ कलकत्ता विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित एक अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम मेँ आपको कालेज स्ट्रीट तक पहुँचाने का मौका मिला पर आप मेहमानो(आलोचकोँ) से बात करने मेँ इतने व्यस्त थेँ कि बात नही कर सका। ब्लाग पर छपी कविता ‘हिँदी के बारे मेँ एक हिँदी कवि का बयान’ पढ़ कर दिल खुश हुआ। जबरदस्त कविता है। बधाइयाँ!
By: संदीप प्रसाद on अक्टूबर 8, 2010
at 7:30 पूर्वाह्न
सुंदर रचना , सच का खुलासा
By: नित्यानंद गायेन on सितम्बर 15, 2011
at 3:43 पूर्वाह्न
रायकृष्ण दास द्वारा स्थापित भारत कला भवन में ज्ञानेन्द्रपति की सदारत में आयोजित कार्यक्रम में केदारनाथ सिंहजी से यह कविता सुनने का अवसर मिला था। भाषा के मामले में ‘६७ के जमाने कम्युनिस्टों की समझ के अभाव की उन्होंने स्वीकारोक्ति की उसके के बाद यह कविता सुनाई थी।
By: अफ़लातून अफलू on सितम्बर 14, 2013
at 5:31 पूर्वाह्न