महास्वप्न
कुछ सुना तुमने
प्यार की हवाओं ने अब रुख बदल लिया है
स्नेह की नदी अब अपने चतुष्कोणीय प्रवाह के साथ
हमारी ओर मुड़ चली है
खेतों में प्यार की फसल लहलहा रही है
कुछ सुना तुमने
जमीन की तासीर बदल गई है
अब कुछ भी बोओ फसल प्यार की ही उगेगी
स्नेह रक्तबीज बन गया है
अब से वृक्षों की किस्में नहीं होंगी
केवल स्नेह के बिरवे ही रोपे जायेंगे
किसी ने हवा-पानी सब में स्नेह घोल दिया है
राजहंस अब स्नेह की लहरों पर ही तैरेंगे
सोनपाखी प्यार में ही उड़ान भरेंगे
और प्यार ही गाया करेंगे
कुछ सुना तुमने
स्नेह की नदी ने मंदिर-मस्जिद-गुरूद्वारे को मांज दिया है
पंचनदों में स्नेह का उफान है गंगोत्री अब स्नेह की गंगोत्री है
और भारत है स्नेह का प्रायद्वीप
कुछ सुना तुमने
सारे अवरोधक बांध तोड़ चुका है स्नेह
गांव-गली घर-आंगन चौबारे स्नेह से पगे हैं
स्नेह का ज्वार वृक्ष की सबसे ऊंची फुनगी से होता हुआ
मस्जिद की मीनार और मंदिर के कलश को डुबो चुका है
बुजुगों की कहनूत है ऐसा ज्वार
पहले कभी नहीं देखा
ये हो क्या रहा है ?
सब अचरज में हैं
वातावरण में बारूद की नहीं चंदन की महक है
लालिमा अब रक्त की नहीं गुलाल की है लाज की है
बन्दूकें अब स्नेह की बौछार कर रही हैं
बच्चे पिचकारियों और बन्दूकों में फर्क भूल गए हैं
कुछ सुना तुमने
स्नेह की भाषा यौवन पर है
स्नेह से सराबोर सब सकते में हैं
स्नेह का वेगवान प्रवाह
तोड़ चुका है छंदों के बंधन
सारे कवि स्तब्ध हैं सुख की अतिशयता से
बह चली है त्रिवेणी
काव्य की स्नेह की सुख की
कुछ सुना तुमने
अब मानव स्वर्ग का आकांक्षी नहीं
देवताओं में जन्म लेने की होड़ है
कुछ सुना तुमने
अब मैं युगदृष्टा हो गया हूं
सामान्य जन नहीं, मसीहा हूं स्नेह का ।
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साभार : जनसत्ता वार्षिक अंक (दीपावली २००६)
बहुत आशावादी हो, काश यह सत्य हो पाता!!
वैसे स्वप्न बहुत अच्छा देखा आपने, यह दोपहर को देखा या Early in the morning ?
क्यों कि सुना है सुबह सुबह के सपने सत्य भी हो जाते हैं।
By: सागर चन्द नाहर on नवम्बर 3, 2006
at 8:40 पूर्वाह्न
“अब कुछ भी बोओ फसल प्यार की ही उगेगी
स्नेह रक्तबीज बन गया है
अब से वृक्षों की किस्में नहीं होंगी
केवल स्नेह के बिरवे ही रोपे जायेंगे”
बहुत अच्छी लगीं ये पंक्तियां। यदि मैं पल भर के लिये ईश्वर बन जाऊं तो यही कहूंगा – तथास्तु!
By: अनुराग श्रीवास्तव on नवम्बर 3, 2006
at 10:18 पूर्वाह्न
काश यह कल्पना सत्य हो।
By: ratna on नवम्बर 3, 2006
at 11:33 पूर्वाह्न
कहां से ढूंड लाए भाई – बहुत अच्छी कवीता है – धन्यवाद
By: SHUAIB on नवम्बर 3, 2006
at 11:36 पूर्वाह्न
बहुत अच्छी कबिता है बन्धुवर। कविता राष्ट्रभक्ति और एकता से ओतप्रोत है।
By: प्रमेन्द्र प्रताप सिंह on नवम्बर 3, 2006
at 2:45 अपराह्न
कुछ सुना तुमने…….आपका अंदाजे बयां पसंद आया । आशा का संचार करती यअपनी इस रचना को हम सब के साथ बांटने के लिये धन्यवाद !
By: मनीष on नवम्बर 4, 2006
at 9:20 पूर्वाह्न
सागर,अनुराग,रत्ना,शुएब,प्रमेन्द्र और मनीष,
उत्साह बढाने के लिए आप सभी के प्रति आभार व्यक्त करता हूं . कवि भी सामान्य जन के बीच से ही आता है . वह भी अपने समाज के लोगों के साथ आशा और निराशा के बीच झूलता रहता है . पर जगत गति उसे जरा जल्दी व्यापती है. मेरी कविता ‘सबसे बुरा दिन’ यदि किसी बुरे सपने की ओर संकेत करती है तो यह कविता ‘महास्वप्न’ अपने स्वभाव और चरित्र में ‘यूटोपिअन’ है . यूटोपिआ का आदर्श भले ही सच न हो पर हम सब उसकी कल्पना करते हैं . और बुरे से बुरे वक्त में करते हैं . यह मनुष्य का स्वभाव है.
By: प्रियंकर on नवम्बर 6, 2006
at 10:14 पूर्वाह्न
प्रियंकर जी, मुझे आपकी ये पन्क्तियाँ सबसे ज्यादा पसँद आईं–
“कुछ सुना तुमने
अब मानव स्वर्ग का आकांक्षी नहीं
देवताओं में जन्म लेने की होड़ है “
By: rachana on नवम्बर 8, 2006
at 4:23 अपराह्न
रचना जी ,
कविता में रुचि प्रदर्शित करने हेतु धन्यवाद .
By: प्रियंकर on दिसम्बर 1, 2006
at 12:59 अपराह्न