महेन्द्र सिंह पूनिया की एक कविता
कमी
दाल में कम पड़े नमक की तरह
जीवन में कहीं कुछ कम है
क्या कम है ?
सरसों भी फूली हुई है खेतों में
आम पर आ गया है बौर
कूक रही है कोयल भी उस पर
तुम भी बैठी हो पास में
साइबेरिया के सारस लौट रहे हैं
कतार बांध कर अपने घरों को
झबरी कुतिया ने दिये हैं चार-चार पिल्ले
मां भी तो हैं स्वस्थ
पिता गए हैं खेत देखने
कई दिनों के बाद
फिर भी दाल में कम पड़े नमक की तरह
जीवन में कहीं कुछ कम है
क्या कम है ?
क्या दुनिया के नक्शे पर से
इराक कम है,फ़िलिस्तीन कम है
अफ़गानिस्तान कम है या नेपाल कम है ?
क्या तारीख की किताबों में
मार्क्स कम है, वाल्टेयर कम है
रूसो कम है, हारून रशीद कम है
क्या किस्सागोई में
अलीबाबा कम है
तोता-मैना कम है
हातिमताई कम है
बगदाद के संग्रहालय से
फूलों वाले गुलदान के अलावा
क्या-क्या कम है —
क्या यही नियम है
कि सरसों, आम फूलें तो
हम कहें कि गम कम है
उसका हाथ अपने हाथों में लेते हुए
मैने पूछा —
“क्या तुम बता सकती हो
क्या कम है ?”
देखती रही आंखों में
कुछ नहीं बोली वह
आंगन में रखे रेडियो पर
साहिर बोल रहा था
“हवस-नसीब नज़र को कहीं करार नहीं
मैं मुन्तज़िर हूं मगर तेरा इन्तज़ार नहीं ।”
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कवि परिचय :
बेहद संवेदनशील युवा कवि . पहला काव्य संकलन और गज़ल संग्रह प्रकाशन के लिए तैयार . भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी . सिलीगुड़ी (प०बं०) में पदस्थापित .
bahut khoob
By: neelam on नवम्बर 29, 2006
at 10:39 अपराह्न
क्या बात है.साधु-साधु !
By: अफलातून on दिसम्बर 1, 2006
at 9:48 पूर्वाह्न
वाह ! क्या बात है !
By: रोमी on मार्च 13, 2008
at 6:23 अपराह्न