यमुना तट पर छठ
इस नदी की सांसें लौट आई हैं
इसकी त्वचा मटमैली है
मगर पारदर्शी है इसका हृदय
इसकी आंखों में कम नहीं हुआ है पानी
घुटने भर मिलेगा हर किसी को पानी
लेकिन पूरा मिलेगा आकाश
छठव्रतियों को
परदेश में छठ करते हुए
मन थोड़ा भारी हो रहा है
महिलाओं का
दिल्ली में बहुत दूर लगती है नदी
सिर्फ़ गन्ने के लिए
या सिंघाड़े के लिए
लंबा सफ़र तय करना पड़ता है
अपना घर होता
तो दरवाजे तक पहुंचा जाता कोई सूप
गेहूं पिसवा कर ला देता
मोहल्ले का कोई लड़का
मिल-बैठ कर औरतें
मन भर गातीं गीत
गंगा नहीं है तो क्या हुआ
गांव की छुटकी नदी नहीं है तो क्या हुआ
यमुना तो है
हर नदी धड़कती है दूसरी नदी में
जैसे एक शहर प्रवाहित होता है
दूसरे शहर में
पर सूरज एक है
सबका सूरज एक
हे दीनानाथ !
हे भास्कर !
अर्घ्य स्वीकार करो
वह शहर जो पीछे छूट गया है
वह गांव जो उदास है
वे घर जिसमें बंद पड़े हैं ताले
जहां कुंडली मारे बैठा है अंधेरा
वहां ठहर जाना
अपने घोड़ों को कहना
वे वहां रुके रहें थोड़ी देर
हे दिनकर !
यह नारियल यह केला यह ठेकुआ
सब तुम्हारे लिए है
सब तुम्हारे लिए ।
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( समकालीन सृजन के ‘कविता इस समय’ अंक से साभार )
कवि परिचय :
हिंदी के विशिष्ट युवा कवि,कहानीकार और पत्रकार . दिल्ली/गाज़ियाबाद में रहते हैं .
बहुत बढ़ियां और आपको प्रस्तुति के लिये साधुवाद.
By: समीर लाल on दिसम्बर 7, 2006
at 12:51 पूर्वाह्न
धन्यवाद आपके लिए है।
By: ratna on दिसम्बर 8, 2006
at 4:45 अपराह्न
Bahut sundar kavita hai ..
By: Rakesh on दिसम्बर 12, 2006
at 8:09 पूर्वाह्न
Poem touches my heart.
By: pandit vinay kumar. on अक्टूबर 28, 2010
at 3:50 अपराह्न
बहुत धन्यबाद … और छठ पर्व की आपको और आपके प्रियजनों को शुभकामनाएँ ..
छठ पर्व पर मेरे भी लिखे कुछ अनुभव देखें :
http://pankaj-writes.blogspot.com/2010/11/hum-to-bihari-hain-doobte-surya-ko.html
By: Prakash Pankaj on नवम्बर 14, 2010
at 6:30 पूर्वाह्न