सीता है या गीता है
जीवन भर की मीता है
उसका दर्ज़ा सर्वोपरि
आखिर वह परिणीता है
मीठा से मीठा रिश्ता
उसके आगे तीता है
तृष्णा उसे सताए क्यों
जो इस रस को पीता है
कइयों का कहना है यह
हिरन भेस में चीता है
कहता हूं मैं प्यारे तू
अगर खरा हो जीता है
आगे बेहतर बीतेगा
जैसा अब तक बीता है।
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बढ़िया गज़ल है भैया ।
रीतेश गुप्ता
By: रीतेश गुप्ता on दिसम्बर 15, 2006
at 8:39 अपराह्न
अच्छी लगी गजल.
By: अनूप शुक्ला on दिसम्बर 16, 2006
at 12:03 पूर्वाह्न
1952 में स्व. रघुवीर सहाय ने लिखा था – हम याद करा रहे हैं और राजकिशोर को भी जरूर याद होगा , यदि यह ‘रविवार’ वाले ही हैं तब . क इयों की छोडिये आप भी तो ‘तीता-रस-पीता’ वाले हो गये.अपनी डायरी में अपने लिए लिखिये,छापने मत दीजिए.न यहां न ‘सामयिक वार्ता’ में .
. राजकिशोर का खरापन संदिग्ध है . कितनी गिरावट है सहाय जी को पढ़ने से अन्दाज मिल जाता है .
पढ़िए गीता
बनिए सीता
फिर इन सबमें लगा पलीता
किसी मूर्ख की हो परिणीता
निज घरबार बसाइये .
होंय कंटीली
आंखें गीली
लकड़ी सीली , तबियत ढीली
घर की सबसे बड़ी पतीली
भरकर भात पसाइये .
By: afloo on दिसम्बर 16, 2006
at 4:09 अपराह्न
अच्छी गज़ल है ।
काफ़ी साल पहले (बचपन में ) एक गज़ल लिखनें की कोशिश की थी , याद आ रही है :
तुम ही तो मेरी गीता हो
भावों की पुण्य पुनीता हो
मैं जिन सपनें को देख रहा
तुम उन सपनें की सीता हो
मैं जिस मरुधर में भटक रहा
तुम उस मरुधर की सरिता हों
मैं अब तक जिस को रच न सका
तुम वो सर्वोत्तम कविता हो ।
>> कुछ और शेर थे जो याद नहीं आ रहे
By: अनूप भार्गव on दिसम्बर 20, 2006
at 4:04 पूर्वाह्न
मित्रो,
मैं उन सभी पाठकों का शुक्रगुजार होऊंगा जो आक्षेप के लिए नहीं, उदाहरण और व्याख्या के साथ यह बताने की कृपा करेंगे कि मेरे लेखन में कहां-कहां अंतर्विरोध हैं।
धन्यवाद
राजकिशोर
By: राजकिशोर on मई 31, 2007
at 6:42 अपराह्न