Posted by: PRIYANKAR | दिसम्बर 15, 2006

राजकिशोर की एक गज़ल

 

सीता है या गीता है

जीवन भर की मीता है

 

उसका दर्ज़ा सर्वोपरि

आखिर वह परिणीता है

 

मीठा से मीठा रिश्ता

उसके आगे तीता है

 

तृष्णा उसे सताए क्यों

जो इस रस को पीता है

 

कइयों का कहना है यह

हिरन भेस में चीता है

 

कहता हूं मैं प्यारे तू

अगर खरा हो जीता है

 

आगे बेहतर बीतेगा

जैसा अब तक बीता है।

 

**********


Responses

  1. बढ़िया गज़ल है भैया ।

    रीतेश गुप्ता

  2. अच्छी लगी गजल.

  3. 1952 में स्व. रघुवीर सहाय ने लिखा था – हम याद करा रहे हैं और राजकिशोर को भी जरूर याद होगा , यदि यह ‘रविवार’ वाले ही हैं तब . क इयों की छोडिये आप भी तो ‘तीता-रस-पीता’ वाले हो गये.अपनी डायरी में अपने लिए लिखिये,छापने मत दीजिए.न यहां न ‘सामयिक वार्ता’ में .
    . राजकिशोर का खरापन संदिग्ध है . कितनी गिरावट है सहाय जी को पढ़ने से अन्दाज मिल जाता है .
    पढ़िए गीता
    बनिए सीता
    फिर इन सबमें लगा पलीता
    किसी मूर्ख की हो परिणीता
    निज घरबार बसाइये .

    होंय कंटीली
    आंखें गीली
    लकड़ी सीली , तबियत ढीली
    घर की सबसे बड़ी पतीली
    भरकर भात पसाइये .

  4. अच्छी गज़ल है ।

    काफ़ी साल पहले (बचपन में ) एक गज़ल लिखनें की कोशिश की थी , याद आ रही है :

    तुम ही तो मेरी गीता हो
    भावों की पुण्य पुनीता हो

    मैं जिन सपनें को देख रहा
    तुम उन सपनें की सीता हो

    मैं जिस मरुधर में भटक रहा
    तुम उस मरुधर की सरिता हों

    मैं अब तक जिस को रच न सका
    तुम वो सर्वोत्तम कविता हो ।

    >> कुछ और शेर थे जो याद नहीं आ रहे

  5. मित्रो,
    मैं उन सभी पाठकों का शुक्रगुजार होऊंगा जो आक्षेप के लिए नहीं, उदाहरण और व्याख्या के साथ यह बताने की कृपा करेंगे कि मेरे लेखन में कहां-कहां अंतर्विरोध हैं।
    धन्यवाद
    राजकिशोर


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