कहता है गुरु ग्यानी
वे कहते हैं
कविता को प्रकाश-स्तंभ
की तरह होना चाहिए
एक सच्चे सार्वभौम
विचार को क्रांति का
बीज बोना चाहिए
कहां है सागर
किस ओर से आते हैं जहाज
उन्हें नहीं पता
किस दिशा में है शत्रु
वे नहीं बताते
वे जिनके कटोरदान
में बंद है
हमारी उपजाऊ धरती
जो हवा की बीमारी
के कारक हैं
अनापत्ति प्रमाणपत्र
लहराते हुए हाज़िर हैं
एक बेहतरीन योजना
के साथ
नदी के पाट को
चिकनी-चौड़ी सड़क में
कैसे बदला जाए
पैसे और प्रौद्योगिकी को
बहंगी में लादे फेरीवाले
गली-गली घूम रहे हैं
एक से एक कारगर योजनाएं
वाजिब दाम पर उपलब्ध हैं
तमाम बुद्धिजीवी, प्रौद्योगिकीजीवी,परजीवी इन बाजार-चतुर
नवाचारियों की दक्षता पर मुग्ध हैं
दुलहिनें लगातार मंगलाचार गा रही हैं
खबर है
जब हिंद और
प्रशांत महासागर
कचरे से पट जाएंगे
बहुत कम लागत में
अमेरिका तक
सड़क यातायात संभव होगा
गर्म कोलतार में
पैसे की गंध सूंघते
लकड़सुंघवे लड़ रहे हैं
यह कारों की बंपर फसल
का ऐतिहासिक क्षण है ।
एक जादूई भाषा में
बाइबल की तर्ज पर
वायबल-वायबल
जैसा कोई मंत्र बुदबुदाते हुए
जब वे “गरीबी की संस्कृति”
के खिलाफ
कुछ बोलते हैं
“सांस्कृतिक गरीबी” के
कई पाठ खुलते हैं
सुविधाओं में सने संत उच्चार रहे हैं
पृथ्वी और नदी को
मां कहना चाहिए
सरस्वती के स्मरण मात्र से जैसे अह्लादित होता था ऋग्वैदिक ऋषि कुछ वैसी ही खुशी का
इजहार करना चाहिए
पल-पल बदलती
पटकथा वाले इस नाटक में
एक कवि की क्या भूमिका हो सकती है
साइक्लोप्स अनगिनत आंखों से
घूर रहा है
अंधेरा बढ़ चला है
धुंध और धुएं से भरे
समय में
प्रत्यंचा सी तनी है कविता ।
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वाह, वाह…प्रियंकर जी। बहुत प्रभावशाली और सटीक प्रहार करने वाली कविता है।
By: सृजन शिल्पी on दिसम्बर 22, 2006
at 10:26 पूर्वाह्न
सुविधाओं में सने संत उच्चार रहे हैं
पृथ्वी और नदी को
मां कहना चाहिए
सरस्वती के स्मरण मात्र से जैसे
अह्लादित होता था ऋग्वैदिक ऋषि कुछ वैसी ही खुशी का
इजहार करना चाहिए
–बहुत खुब.
By: समीर लाल on दिसम्बर 22, 2006
at 1:25 अपराह्न
बहुत सुन्दर ! भावों की अभिव्यक्ति तारीफ़े काबिल है !
By: PRABHAT TANDON on दिसम्बर 22, 2006
at 3:16 अपराह्न
वाह प्रियकंर जी, क्या लिखा है।
By: Pramendra Pratap Singh on दिसम्बर 23, 2006
at 1:00 अपराह्न
Lovely
By: Aseem on दिसम्बर 26, 2006
at 10:07 पूर्वाह्न
ताने रहिए प्रत्यंचा!दिशा कभी सिंगूर की भी होगी,उम्मीद है.
By: afloo on दिसम्बर 27, 2006
at 9:04 पूर्वाह्न
वाह प्रियंकर जी;
बहुत बहुत भावप्रद कविता है.
छू गई
By: धुरविरोधी on मई 22, 2007
at 9:55 पूर्वाह्न
ताने रहिये बन्धु.. बीच-बीच में चला भी दीजियेगा.. एक-आध आँख तो फूटे ससुरे की..
By: अभय तिवारी on अगस्त 29, 2007
at 1:01 अपराह्न