Posted by: PRIYANKAR | फ़रवरी 21, 2007

विजेन्द्र की एक कविता

अच्छत धरती

 

अच्छत धरती तोड़ रहा हूं

ठाड़ी खरपतवार घनेरी

उसी-उसी को

गोड़ रहा हूं

सुनो,सुनो —

क्यों तुम चौंको

भेड़ धसानी

मोड़ रहा हूं

 

जिसका होता बड़ा कलेजा

वो ही मिनख

लौह गलाता

जो चलता गढ़ लीकों भारी

वो ही तम को

मार भगाता

सुनते-सुनते कान पक गए

कहते-कहते जीभ पिरानी

ढहा ढहा पत्थर का गढ़ फिर

टूटे धागे जोड़ रहा हूं

 

देखो, कविगण

हांफ रहे हैं

आमंत्रित हैं राजभवन में

चूना-खैनी फांक रहे हैं

देख रजत मुद्रा ललचाएं

भजनानंदी ओढ़ दुपट्टा

मधुर कंठ से

गाना गाएं

 

कैसा ढब है

कैसा करतब

होड़ मची लेने को अर्दब

ऊपर जिनको हंसते पाया

अंदर उनको रोते पाया

 

कैसा बखत है भाया मेरे

बिना नीर के

नदियां सूखें

बिना चले ही

रानें दूखें

अपनी राह चला चलता हूं

टिर्री क्यों गलियारे भूंकें

देख मुझे वे गुर्राते हैं

अंदर-अंदर थर्राते हैं

 

मैंने जिनको छाया दी है

पके फलों की

आभा दी है

वे ही मुझको काट रहे हैं

मुझको

मुझसे बांट रहे हैं

पट्टे उनके चमक रहे हैं

मालिक उनके दमक रहे हैं।

 

************

 

(समकालीन सृजन के ‘कविता इस समय’ अंक से साभार)

 

************

 

पहले तुम्हारा खिलना (काव्य संग्रह)

विजेन्द्र

विजेन्द्र का काव्य संकलन

भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली से प्रकाशित


Responses

  1. धन्यवाद प्रियँकर जी, ये कविता बहुत पसँद आई.

  2. वाह ! बहुत भायी कविता

  3. बहुत बढिया कविता है , बहुत सशक्त …
    विजेन्द्र जी के बारे में कुछ और बतायें ।

  4. अरे ! ये ऊपर वाली टिप्पणी मेरी है …
    रजनी logged on थी और टिप्पणी मैनें अपने दे दी ..

  5. badhayee

  6. जबरदस्त ! शुक्रिया । सप्रेम,


एक उत्तर दें

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  बदले )

Twitter picture

You are commenting using your Twitter account. Log Out /  बदले )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  बदले )

Connecting to %s

श्रेणी

%d bloggers like this: