अच्छत धरती
अच्छत धरती तोड़ रहा हूं
ठाड़ी खरपतवार घनेरी
उसी-उसी को
गोड़ रहा हूं
सुनो,सुनो —
क्यों तुम चौंको
भेड़ धसानी
मोड़ रहा हूं
जिसका होता बड़ा कलेजा
वो ही मिनख
लौह गलाता
जो चलता गढ़ लीकों भारी
वो ही तम को
मार भगाता
सुनते-सुनते कान पक गए
कहते-कहते जीभ पिरानी
ढहा ढहा पत्थर का गढ़ फिर
टूटे धागे जोड़ रहा हूं
देखो, कविगण
हांफ रहे हैं
आमंत्रित हैं राजभवन में
चूना-खैनी फांक रहे हैं
देख रजत मुद्रा ललचाएं
भजनानंदी ओढ़ दुपट्टा
मधुर कंठ से
गाना गाएं
कैसा ढब है
कैसा करतब
होड़ मची लेने को अर्दब
ऊपर जिनको हंसते पाया
अंदर उनको रोते पाया
कैसा बखत है भाया मेरे
बिना नीर के
नदियां सूखें
बिना चले ही
रानें दूखें
अपनी राह चला चलता हूं
टिर्री क्यों गलियारे भूंकें
देख मुझे वे गुर्राते हैं
अंदर-अंदर थर्राते हैं
मैंने जिनको छाया दी है
पके फलों की
आभा दी है
वे ही मुझको काट रहे हैं
मुझको
मुझसे बांट रहे हैं
पट्टे उनके चमक रहे हैं
मालिक उनके दमक रहे हैं।
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(समकालीन सृजन के ‘कविता इस समय’ अंक से साभार)
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पहले तुम्हारा खिलना (काव्य संग्रह)
विजेन्द्र
भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली से प्रकाशित
धन्यवाद प्रियँकर जी, ये कविता बहुत पसँद आई.
By: rachana on फ़रवरी 21, 2007
at 4:55 अपराह्न
वाह ! बहुत भायी कविता
By: प्रत्यक्षा on फ़रवरी 22, 2007
at 4:23 पूर्वाह्न
बहुत बढिया कविता है , बहुत सशक्त …
विजेन्द्र जी के बारे में कुछ और बतायें ।
By: rajni bhargava on फ़रवरी 22, 2007
at 6:42 पूर्वाह्न
अरे ! ये ऊपर वाली टिप्पणी मेरी है …
रजनी logged on थी और टिप्पणी मैनें अपने दे दी ..
By: अनूप भार्गव on फ़रवरी 22, 2007
at 6:44 पूर्वाह्न
badhayee
By: Zakir Ali 'Rajneesh' on जून 12, 2007
at 5:44 पूर्वाह्न
जबरदस्त ! शुक्रिया । सप्रेम,
By: Aflatoon Afloo on जुलाई 14, 2011
at 3:27 अपराह्न