मेरी सबसे प्रिय फ़िल्म
माफ़ कीजिएगा मैं एक नाम नहीं ले सकूंगा . अपनी सूची को बहुत छोटा करते हुए मैं अपनी सबसे प्रिय तीन फ़िल्मों के नाम बताना चाहूंगा जिन्हें आज़ भी देखने का मौका मिलता है तो मैं देखे बिना नहीं रह पाता .
१. के.आसिफ़ की मुगलेआज़म(1960):
मुगल-ए-आज़म निर्माता के० आसिफ़ की कल्पनाशीलता,श्रम और वैभव का अमर स्मारक है. अपनी उदात्तता,अपने सौन्दर्य तथा कलाकारों के शानदार अभिनय के कारण यह फ़िल्म भारतीय फ़िल्मों के इतिहास में एक यादगार फ़िल्म है. मधुबाला का शांत-स्निग्ध चेहरा या कहें प्रेम की गरिमा से भरा अनारकली का वह अविस्मरणीय चेहरा . वह साहस जिसके साथ वह मौत की छाया में भी एक राजरानी/मलिका की गरिमा के साथ जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर के सारे गुनाह माफ़ करने की घोषणा करती है . एक नर्तकी के रूप में ‘प्यार किया तो डरना क्या’ गाते हुए एक झटके में झीना नकाब हटाते हुए यह ‘डिफ़ाइयंस’ से भरी आत्मस्वीकारोक्ति कि ‘ पर्दा नहीं जब कोई खुदा से बंदों से पर्दा करना क्या’ . और वह क्लोज़ अप जिसमें अनारकली के सुघड़ चेहरे को एक सुकोमल पंख से स्पर्श करता सलीम . मन की दराज़ों में अब तक सुरक्षित हैं . और संगतराश के साथ सैकड़ों स्वरों की सामूहिकता से गूंजता वह कोरस ‘ऐ मोहब्बत ज़िन्दाबाद’ भी जो मन में अज़ब सा उन्माद भर देता है.
2.बासु भट्टाचार्य/शैलेन्द्र की तीसरी कसम(1966):
भारत के ग्रामीण जीवन की लय को अपनी रगों में महसूस करने के लिये इस फ़िल्म को बार-बार देखा जाना चाहिये . गरीबी,साधनहीनता और कठिन जीवनशैली के बावजूद ग्रामीण भारत के मूल्यों-संस्कारों, उसके सहज विश्वासी मन और उसके भीतर बहते सहजात प्रेम के स्रोतों तथा उनके जीवन की करुणा के काव्य और लोक के भीतर बहते संगीत की एक सच्ची झलक प्रस्तुत करने की दृष्टि से यह फ़िल्म ऐतिहासिक महत्व रखती है . रेणु की बेहतरीन कहानी का अद्वितीय फ़िल्मांकन. शैलेन्द्र का अंतिम आशीष !
3. और हृषिकेश मुखर्जी की अभिमान(1973):
दाम्पत्य जीवन की बारीक बुनावट का इतना संवेदनशील और कलात्मक दस्तावेज़ कि मन की अतल गहराइयों तक जाकर यह उस नवनीत को मथ कर निकालता है जो दाम्पत्य का प्राणतत्व है. यह फ़िल्म इस सत्य को पूरी संवेदनशीलता से रूपायित करती है कि बिगाड़ के ऐन बीच भी रचाव को खोज लेने की कीमियागरी होती है दाम्पत्य में यदि आत्मीयता और लगाव और जुड़ाव का पोषक रस इसकी धमनियों में बह रहा है.
कविता मेरे जीवन का आधार है. यह सच फ़िल्मों के चुनाव में भी दिखे तो आश्चर्य कैसा.सच तो यह है कि ये तीनों फ़िल्में भी सेल्युलाइड पर लिखी कविताएं ही हैं. इनका गीत-संगीत पक्ष तो कमाल का है ही .
जीवन की सबसे उल्लेखनीय और खुशनुमा घटना :
अब तक एक औसत भारतीय का-सा सरल जीवन जिया . सो उल्लेखनीय जैसा कुछ भी नहीं है .
होने को 1987 में बीटीटीसी, सरदारशहर में आयोजित कवि सम्मेलन में अपनी कविता ‘शब्द जो शब्द भर नहीं हैं’ की प्रस्तुति के बाद अपने को गुमनाम रखने वाली सहपाठिनी के वे दो अंतर्देशीय पत्र मिलना एक अभूतपूर्व अनुभव था . उन्हें मैंने कई-कई बार तब तक पढ़ा जब तक कि कागज झिरने नहीं लगा .
1988 में प्रमिला(पत्नी) से पहली मुलाकात भी एक उल्लेखनीय घटना है. उसके उत्फ़ुल्ल चेहरे ने मुझे जीवन के नए मकसद दिये . जीवन एक आउटलाइन वाले मानचित्र की तरह था, प्रमिला ने उसमें रूपाकार अंकित किये और रंग भरे .
एक उल्लेखनीय घटना (या दुर्घटना?) यह है कि विवाह के पश्चात मेरे नाम लिखे प्रमिला के पहले पत्र को मेरे दोस्त आनंदकृष्ण नागर के पिता द्वारा पाली गई बकरी चबा गई . वह भी मुझे तब पता चला जब प्रमिला ने फोन पर शिकायत की कि मैने उसके पत्र का जवाब नहीं दिया . दरियाफ़्त करने पर पता चला कि एक सुगंधयुक्त रंगीन लिफ़ाफ़ा नागर जी की प्रिय बकरी को चबाते हुए देखा गया था . पहले तो मैं कई दिन आसन साध कर बकरी के पास बैठा और उससे मित्रता बढाई इस लालच में कि शायद पत्र का कुछ मजमून बता दे मिमियाकर. पर जब उसने टालमटोल किया तो मैंने किसी मध्यकालीन योद्धा की तरह घोषणा की कि नागर मैं तेरी इस दुष्ट बकरी को गोली मार दूंगा . तब नागर ने हाथ जोड़ते हुए कहा कि ‘ऐसा गज़ब मत कर देना क्योंकि यह मेरे सेवानिवृत्त पिता की प्रिय बकरी है और उनकी दिनचर्या का अभिन्न अंग’. नागर के कथनानुसार उसके पिता का आधा समय उस बकरी की देखभाल और साजसंभाल में जाता है और फिर वे उसे खुला छोड़ देते हैं तब उसके बाद का आधा समय उसे ढूंढ कर वापस लाने में लगता है. अतः यदि बकरी को कुछ हो गया तो उनका क्या होगा . वे फिर से बेरोज़गार हो जाएंगे और नतीज़तन बेटों और बहुओं की दिनचर्या पर ज्यादा ध्यान केन्द्रित करेंगे . इस तरह नई समस्याओं का जन्म होगा . समस्या ‘जेनुइन’ थी अतः हमने राजपूती छोड़ कर मराठों की रणनीति को अपनाना उचित समझा और आगे की सोच कर कदम पीछे हटाना स्वीकार किया . साधो! इस तरह उस दुष्ट बकरी के प्राण बच गये पर दाम्पत्य जीवन का पहला पत्र-संवाद परवान न चढ़ सका . उसके बाद रही-सही कसर इस मुई संचार क्रांति ने पूरी कर दी और इस तरह हमारा पत्र-संवाद षड़यंत्रों की बलि चढ़ गया.
नवम्बर 1992 में बेटी का जन्म भी एक उल्लेखनीय घटना है जिसने मुझे जीवन ,परम्परा,परिवार और बुजुर्गों के आशीर्वाद के सम्बन्ध में और अधिक कृतज्ञता से सोचने का अवसर उपलब्ध कराया .
1994 में भारत सरकार के एक वैज्ञानिक संस्थान में मिली छोटी-मोटी अफ़सरी भी कहने को उल्लेखनीय हो सकती है. पर मुझे लगता है अब तक जीवन जिया ही क्या है. मध्यवर्ग के एक औसत भारतीय का औसत जीवन. जिसमें उतार-चढाव नहीं के बराबर हैं . सो लगता है जीवन की सबसे उल्लेखनीय और खुशनुमा घटना अभी घटित होनी बाकी है . उसका इन्तज़ार बना हुआ है.
किस तरह के चिट्ठे पढना पसंद करते हैं ?
बहुत ही मुश्किल सवाल है. मुझे हर तरह के चिट्ठे पढना पसंद है. तभी तो मेरे पसंदीदा चिट्ठाकारों में फ़ुरसतिया, प्रियरंजन, सुनीलदीपक,सृजनशिल्पी,नीरजदीवान,रविरतलामी,देवाशीष,रमन कौल,अविनाश,अफ़लातून,आशीष,उन्मुक्त,अनुराग,बेजी,प्रत्यक्षा,लावण्या,मान्या,अनूप-रजनी भार्गव,समीर लाल,जीतू,संजय बेंगानी,जगदीश भाटिया, शशि सिंह, शुएब,सागर,प्रमोद सिंह,लक्ष्मीजी और रचना जैसे विविध विषयों,विधाओं और शैलियों में लिखने वाले चिट्ठाकार शामिल हैं.गिरीन्द्र,नितिन बागला,श्रीश,गिरिराज,सीमा,अमित और प्रमेन्द्र में मुझे भविष्य की संभावना दिखाई देती है.
पसंद इतनी व्यापक है कि मेरे लिये यह बताना ज्यादा आसान होगा कि मुझे कैसे चिट्ठे नापसंद हैं. जो कुछ मुझे जीवन में नापसंद है, जैसे- मूर्खता,अपढ़ और कुपढ़पना,संकीर्णता,चालाकी,चापलूसी और भाषा के साथ लापरवाहीभरा ‘कैजुअल’ व्यवहार अथवा दुर्व्यवहार; वही मुझे चिट्ठों में भी नापसंद है. कभी-कभी जब ऐसा महसूस हुआ है तो मैंने अपने तईं विरोध जताने में भी कभी कोताही नहीं की.
हां यदि किसी एक चिट्ठाकार का नाम लिया जाये जिसकी भाषा-शैली और प्रस्तुति का मैं कायल हूं तो वह हैं फ़ुरसतिया. कभी-कभी अच्छाई-बुराई को एक ही नज़र से देखने यानी समदर्शिनः होने के बावजूद वे अपने बेहद आनंदपूर्ण और खिलंदड़े गद्य के लिये मेरी नज़र में सर्वश्रेष्ठ हैं.
क्या चिट्ठाकारी ने आपके व्यक्तित्व में कुछ परिवर्तन किया है ?
जीतू और अमित की प्रारम्भिक मदद से गत वर्ष अगस्त माह में चिट्ठाकारी शुरु की थी . उसके बाद जैसे-तैसे करके इसे जारी रखे हूं. वह भी अभी अपने को सिर्फ़ कविता तक ही सीमित रखा है. यानी अभी जुम्मा-जुम्मा सिर्फ़ सात महीने हुए हैं इस दुनिया का सदस्य बने. यह बड़ी उम्र में ड्राइविंग सीखने जैसा है.इधर एहतियात ज्यादा बरतता हूं उधर एक्सीडेंट ज्यादा होते हैं. लगता है ट्रैफ़िक नियंत्रण और नियम कानून कुछ है ही नहीं और जिन पर यह जिम्मेदारी है वे गाफ़िल हैं. पर होशियार ड्राइवरों को, जिनका हाथ साफ़ हो चुका है, लगता है सब कुछ ठीक-ठाक है और मैं बेवजह शोर मचा रहा हूं. सो यही कुछ परिवर्तन हैं व्यक्तित्व में जो फ़िलहाल दिख रहे हैं. बाकी तो अपन जैसे थे वैसे हैं. और अब इस पकी उम्र में सुधार की गुंजाइश भी कम ही दिखती है.
यदि भगवान आपको एक बात बदलने का मौका दे तो आप क्या बदलना चाहेंगे ?
देश आज़ाद हुआ और कवियों ने गाया :
आज़ देश में नई भोर है
नई भोर का समारोह है। (शील)
समारोह तो था पर उस समारोह के पीछे अनगिनत सिसकियां और रुदन थे. पहाड़ जैसे अकथनीय दुःख थे. विभाजन था. दिल-दिमाग का,समाज का,धरती का और शायद आकाश का भी. उसी उथल-पुथल में हम सब अपना-अपना टोबा टेक सिंह तलाश रहे थे.
अगर मालिक मुझ पर इतना मेहरबान हो और मुझे एक मौका दे या फ़िर मैं टाइम मशीन में बैठ कर दिक्काल का नियंता बन सकूं और इतिहास के चक्र को उल्टा घुमा सकूं तो मैं भारत के विभाजन को हमेशा-हमेशा के लिये मिटा देना चाहूंगा. क्योंकि यह हमारी पूरी तहज़ीब के खिलाफ़ — हमारी समूची संस्कृति के विरुद्ध — एक कृत्रिम विभाजन है. खुशबुओं की भी कोई सीमा होती है भला . मैं गंगा-यमुना के दोआबे का लड़का स्वप्न के बाद के जागरण में साझी संस्कृति के ऐसे ही देश-काल में आंख खोलना चाहता हूं . अगर यह स्वप्न सच हो सके तो . आमीन!
बेजी के प्रति आभार कि उन्होंने यह सवाल नहीं पूछा कि मेरी प्रिय पुस्तक कौन सी है. मैं जवाब ही नहीं दे पाता. इतनी हैं कि कई-कई पोस्ट लिखनी पड़ेंगी और तब भी शायद कुछ प्रिय पुस्तकें छूट जाएं.
और अंत में पांच ऐसे साथी चिट्ठाकार जो शायद अभी तक इस जाल में नहीं फ़ंसे हैं और जिनके जवाबों में मेरी रुचि होगी — अनूप भार्गव,शशि सिंह,प्रियरंजन झा ,गिरीन्द्र झा और अभय तिवारी .
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प्रियंकर जी, आपने फिल्म वाले प्रश्न में 3 नाम दे कर उसे आसान बना लिया। यदि एक ही नाम चुनना होता तो चुनौतीपूर्ण होता।
यदि मुझे तीन और फिल्मों को नामित करने का अधिकार मिलता तो मैंने भी पुष्पक के अतिरिक्त इन्हीं तीनों को सोच रखा था – पर क्या करें एक ही को चुनना पड़ा
पुस्तक के मामले में मैं तो बड़ी दुविधा था – केवल एक सो मैंने संकोच से दो का ही नाम लिखा।
वरदान के मामले में भी कुछ इसी सोच के अनुरूप ही चुना है।
By: राजीव on फ़रवरी 23, 2007
at 2:53 अपराह्न
यह खेल तो निरन्तर मजेदार होता जा रहा है। सब अपने अपने मन को खोल कर रख रहे हैं, अच्छा लग रहा है।
बकरी ने तो वाकई ज्यादती की आपके साथ 🙂
आप से अनुरोध है कि कविताओं के साथ कभ कभार लेख भी लिखा करें।
By: सागर चन्द नाहर on फ़रवरी 23, 2007
at 3:21 अपराह्न
आपके बारे में इतने आत्मीय रूप से जानकर अच्छा लगा। आपकी पसंद मेरी पसंद से बहुत हद तक मिलती है। आपकी भाषा में जो धार है वह कथ्य के प्रभाव को और अधिक असरकारी बना देती है। हालाँकि मुझे कविता की अधिक समझ नहीं है। कविता के मंदिर में बुद्धि का जूता पहनकर जाने की तुलना में मुझे बाहर से ही रस की देवी को प्रणाम करना उचित लगता रहा है। इसलिए हिन्दी चिट्ठा जगत में सक्रिय कई अच्छे कवियों की रचनाओं पर टिप्पणी करने की जुर्रत अक्सर नहीं कर पाता। (हिन्दी और अंग्रेजी के महान कवियों के बारे में प्रयत्नपूर्वक मेरी जो समझ बनी है, वह आलोचकों तथा प्रोफेसरों की मार्फत बनी है।) लेकिन जब कोई अच्छा कवि कभी-कभार जब ललित गद्य में लिखता है तो मैं टिप्पणी करने से प्राय: पीछे नहीं रहता।
By: सृजन शिल्पी on फ़रवरी 23, 2007
at 4:06 अपराह्न
अब इस खेल में मजा आने लगा।
By: उन्मुक्त on फ़रवरी 23, 2007
at 5:04 अपराह्न
ये ल्लो, प्रियंकर जी भी लपेटे मे आ गए। लेकिन सही उस्ताद, जवाब झकास दिए हो।
प्रियंकर जी, कविता के साथ साथ थोड़ा गद्य भी ट्राई मारा करो, इत्ता अच्छा तो लिखते हो। फिर काहे आज तक हम लोगों के साथ नाइन्साफ़ी किए? अब दो कविता के साथ एक लेख भी आना चाहिए। अब ये हमारा निवेदन समझो या बच्चे की जिद, लिखना तो पड़ेगा ही।
किसी भी तकनीकी समस्या के लिए हम है ना।
आपका छोटा भाई
-जीतू
By: Jitu on फ़रवरी 23, 2007
at 5:49 अपराह्न
वाह, प्रियंकर जी,
अच्छा लगा आपकी रुचियों और आपके बारे में जानकर.
बढ़िया है और ५ नये फांसे गये लोगों का चुनाव भी उमदा है, बधाई.
By: समीर लाल on फ़रवरी 23, 2007
at 7:25 अपराह्न
बहुत खूब! अच्छा लगा यह सारे सवालों के जवाब पढ़कर! यह जानना सुखद भी है कि हमारी भाषा-शैली और प्रस्तुति के आप कायल हैं! वैसे इससे हमारा संकट भी बढ़ा है- और सजग होकर लिखना पड़ेगा।
पिक्चरों के बारे में भी बहुत अच्छी तरह लिखा आपने। मुगलेआजम में वह दृश्य भी याद आता है जब पृथ्वीराज कपूर की निगाहों के आतंक से अनारकली अपने सलीम का कुर्ता लिये-दिये, फाड़ती हुयी नीचे आ गिरती है। अभिमान भी अच्छी लगी मुझे।
आप लगभग सभी चिट्ठे पढ़ते हैं- कविता में आपकी रुचि है। क्या ऐसा हो सकता है कि आप सप्ताह/पन्द्रह दिन/महीने भर में एक बार पोस्ट की गयी कविताऒं पर चर्चा कर सकें। इससे हमारे साथी चिट्ठाकारों को कुछ दिशा-दशा मिल सकती है जो नया लिखना शुरू कर रहे हैं। आपकी – सूरज एक दिन भेज देगा अपनी रोशनी का बिल भाव वाली कविता मुझे बहुत पसंद है।
यह संयोग रहा कि हिंदी चिट्ठाजगत में आपके साथ लोगों की कहासुनी कुछ हो ही जाती रही। क्या कारण रहे यह पोस्टमार्टम बेकार हैं। तमाम मोहब्बतें कहा-सुनी से ही शुरु होती रहीं हैं। 🙂 मुझे लगता है कि यह नेट भी एक पर्दे की तरह है। और पर्दे के पीछे क्या है इसके बारे में अक्सर कयास लगाकर हम लोग बात-व्यवहार कर जाते हैं। और एक बात यह भी कि यहां कोई ट्रैफिक नियंत्रण संस्था संभव नहीं है। अधिक से अधिक हम लोग अपने उदाहरणों से दूसरे को प्रेरित कर सकते हैं बस्स। काहे से कर एक पीसी पर ‘इसे पोस्ट करें’ का बटन मौजूद है।
इस प्रश्न मंच के माध्यम से काफ़ी लोगों के बारे में जानने को मिला यह मजेदार है। इसके लिये शायद रचना बजाज बधाई की पात्रा हैं जिन्होंने पांच सीक्रेट बातें पूछने के बजाय पांच सवाल पूछने शुरू किये। बेजी जी का कविता मयी गद्य और आपका यह गद्य भी इस कड़ी की उपलब्धि है। मुझे तो यह लगता है कि आपको नियमित गद्य लेखन करना चाहिये। कुछ दिन पहले ज्ञानरंजनजी के लेखन के बारे में लिखने हुये दूधनाथ सिंह ने लिखात था- अपना मेस्ट्रो (ज्ञानरंजन) जो गद्य लिखता है वैसा कोई नहीं लिखता।मेस्ट्रो का गद्य २० वीं सदी की उपलब्धि है। मुझे लगता है लिखते-लिखते यहां भी कुछ ‘मेस्ट्रो’ बनेंगे। क्या कहते हैं आप!
अब कलकत्ता आने पर मुलाकात करने की योजनायें बनने लगीं हैं!
By: अनूप शुक्ला on फ़रवरी 24, 2007
at 1:41 पूर्वाह्न
आप कॆ साइट कॊ दॆखकर अच्छा| आप हमॆ बतायॆ की यह केसॆ बनाया |
By: kesar on फ़रवरी 24, 2007
at 4:43 पूर्वाह्न
आप कॆ साइट कॊ दॆखकर अच्छा| आप हमॆ बतायॆ की यह केसॆ बनाया | आप लॊग कोन सा फान्ट इस्तॆमाल करतॆ हॆ
कॆसर
By: कॆसर on फ़रवरी 24, 2007
at 4:52 पूर्वाह्न
अपने अन्दर के जज्बातों को जिस खुबसुरती से आपने कागज के पन्ने पर (ब्लाग पर) उकेरा है वो वाकई में काबिल ए तारीफ है ।
मजा आ गया !
By: अनजान on फ़रवरी 26, 2007
at 4:43 पूर्वाह्न
आपके जवाब पढ़कर अच्छा लगा । मैं अनूप जी से सहमत हूँ ।
वैसे आपको अन्तर्जाल पर अक्सर लाल सयाही लेकर चलते देखा है । जहाँ गलती वहाँ गोला 🙂 । साहित्य में सही समीक्षा करने वालों का दायित्व बहुत महत्वपूर्ण है । आप इसे बखूबी निभा रहे हैं ।
वैसे आपने बताया नहीं उस बकरी को कोई अच्छा बकरा मिला या नहीँ !!
By: beji on फ़रवरी 26, 2007
at 6:16 पूर्वाह्न
आप चिट्ठाकारी की इस निर्माणाधीन इमारत में वाकई अहम भूमिका अदा कर रहे हैं। कुछ कुछ उन तख्तों जैसी जो सीमेंट कंक्रीट की छतें डालने के लिए पहले सॉंचा बनाने लगाने के लिए खड़े किए जाते हैं और बाद में खुद हट जाते हैं, केवल इमारत खड़ी रह जाती है। जारी रहें।
By: neelima on फ़रवरी 28, 2007
at 6:07 पूर्वाह्न
प्रियँकर जी, आपके चिट्ठे पर कविताएँ पढना मुझे बहुत पसँद है.जिस दिन पहली बार आपकी टिप्पणी मैने अपने चिट्ठे पर देखी तब बेहद खुशी हुई थी! आपके बारे मे जानकारी भी आपने रुचिकर ढँग से दी है. आपने और तमाम वरिष्ठ लोगों जिस आत्मीयता से प्रश्नों के उत्तर दिये हैं, लग रहा है कि प्रश्न पूछना सार्थक हो गया.
By: Rachana on फ़रवरी 28, 2007
at 5:31 अपराह्न
सबसे पहले आपके परिचय से आपको जाना था । लगा था कुछ अलग है । आज विस्तार से आपको जानना और भी अच्छा लगा ।
By: प्रत्यक्षा on मार्च 2, 2007
at 4:50 पूर्वाह्न
[…] हो जायेगा। उनकी पहली प्रेम पाती बकरी चबा गयी। क्या हाल हुआ होगा हम कल्पना कर […]
By: फुरसतिया » तोहरा रंग चढ़ा तो मैंने खेली रंग मिचोली on मार्च 2, 2007
at 6:18 अपराह्न
आज आपके ब्लाग पर मुझे अपना नाम देख कर काफी खुशी हो रही है, जब आपको भी अपनी 8 माह पुरानी रचना पर टिप्पणी मिलेगी तो निश्चित रूप से आपको भी अच्छा लगेगा।
आपने मुझ पर विश्वास दिखाया है,मै पूरी तरह कसौटी पर खरा उतरने की कोशिस करूँगा।
आपका
प्रमेन्द्र
By: प्रमेन्द्र प्रताप सिंह on नवम्बर 10, 2007
at 11:30 पूर्वाह्न