भारत के मुसलमां
इस दौर में तू क्यों है परेशां व हेरासां
भारत का तू फ़रज़ंद है बेगाना नहीं है
क्या बात है क्यों है मोत-ज़ल-ज़ल तेरा ईमां
ये देश तेरा घर है तू इस घर का मकीं है
दानिश कदए दहर की ऐ शम्मा फ़रोज़ां
ताबिन्दह तेरे नूर से इस घर की ज़बीं है
ऐ मतलऐ तहज़ीब के खुरशीदे दरख्शां
किस वास्ते अफ़सुरदह व दिलगीरो हज़ीं है
हैरत है घटाओं से तेरा नूर ही तरसां
पहले की तरह बागे वतन में हो नवाखां
भारत के मुसलमां भारत के मुसलमां
तू दौरे मोहब्बत का तलबगार अज़लसे
मेरा ही नहीं है ये गुलिस्तां है तेरा भी
तू मेहरो मोरव्वत का परसतार अज़लसे
हर रदो गुलो लालओ रेहां है तेरा भी
तू महरमे हर लज़्ज़ते असरार अज़लसे
इस खाक का हर ज़र्रए ताबां है तेरा भी
रअनाइये अफ़कार को कर फिर से गज़लखां
दामन में उठा ले ये सभी गौहरे रखशां
भारत के मुसलमां भारत के मुसलमां
हरगिज़ न भुला मीर का गालिब का तराना
कश्मीर के फूलों की रेदा तेरे लिये है
बन जाय कहीं तेरी हकीकत न फ़साना
दामाने हिमाला की हवा तेरे लिये है
कज़्ज़ाके फ़ना को तो है दरकार बहाना
मैसूर की जां बख्श फ़ज़ां तेरे लिये है
ताराज़ न हो कासिम व सय्यद का खज़ाना
मद्रास की हर मैजे सबा तेरे लिये है
ऐ कासिम व सय्यद के खज़ाने के निगेहबां
अब ख्वाब से बेदार हो सोये हुए इन्सां
भारत के मुसलमां भारत के मुसलमां
हाफ़िज़ के तरन्नुम को बसा कल्ब व नज़र में
गुज़री हुई अज़मत का ज़माना है तेरा भी
रूमी के तफ़क्कुर को सज़ा कल्ब व नज़र में
तुलसी का दिलावेज़ तराना है तेरा भी
साअदी के तकल्लुम को बिठा कल्ब व नज़र में
जो कृष्ण ने छेड़ा था फ़साना है तेरा भी
दे नग्म ए खैय्याम को जा कल्ब व नज़र में
मेरा ही नहीं है ये खज़ाना है तेरा भी
ये लहन हो फिर हिंद की दुनिया में पुर अफ़शां
छोड़ अब मेरे प्यारे गिलएतन्गी ये दामां
भारत के मुसलमां भारत के मुसलमां
सांची को ज़रा देख अज़न्ता को ज़रा देख
ज़ाहिर की मुहब्बत से मोरव्वत से गुज़र जा
मुमकिन हो तो नासिक को एलोरा को ज़रा देख
बातिन की अदावत से कदूरत से गुज़र जा
बिगड़ी हुई तस्वीरे तमाशा को ज़रा देख
बेकार व दिल अफ़गार कयादत से गुज़र जा
बिखरी हुई उस इल्म की दुनिया को ज़रा देख
इस दौर की बोसीदह सियासत से गुज़र जा
इस फ़न पे फ़कत मैं ही नहीं तू भी हो नाज़ां
और अज़्म से फिर थाम ज़रा दामने ईमां
भारत के मुसलमां भारत के मुसलमां
तूफ़ान में तू ढूंढ रहा है जो किनारा
हम दोनों बहम मिल के हों भारत के मोहाफ़िज़
अमवाज का कर दीदये बातिन से नज़ारा
दोनों बनें इस मुल्क की अज़मत के मोहाफ़िज़
मुमकिन है कि हर मौजे नज़र को हो गवारा
देरीना मवद्दत के मोरव्वत के मोहाफ़िज़
मुमकिन है के हर मौज बने तेरा सहारा
इस देश की हर पाक रेवायत के मोहाफ़िज़
मुमकिन है कि साहिल हो पसे परदए तूफ़ां
हो नामे वतन ताकि बलन्दी पे दरख्शां
भारत के मुसलमां भारत के मुसलमां
गुलज़ारे तमन्ना का निखरना भी यहीं है
इस्लाम की तालीम से बेगाना हुआ तू
दामन गुले मकसूद से भरना भी यहीं है
ना महरमे हर जुरअतेरिन्दानह हुआ तू
हर मुश्किल व आसां से गुज़रना भी यहीं है
आबादीये हर बज़्म था वीराना हुआ तू
जीना भी यहीं है जिसे मरना भी यहीं है
तू एक हकीकत था अब अफ़साना हुआ तू
क्यूं मन्जिले मकसूद से भटक जाये वो इंसां
मुमकिन हो तो फिर ढूंढ गंवाये हुए सामां
भारत के मुसलमां भारत के मुसलमां
मानिन्दे सबा खेज़ व वज़ीदन दिगर आमोज़
अज़मेर की दरगाहे मोअल्ला तेरी जागीर
अन्दर वलके गुन्चा खज़ीदन दीगर आमोज़
महबूब इलाही की ज़मीं पर तेरी तनवीर
दर अन्जुमने शौक तपीदन दिगर आमोज़
ज़र्रात में कलियर के फ़रोज़ां तेरी तस्वीर
नौमीद मशै नाला कशीदन दिगर आमोज़
हांसी की फ़ज़ाओं में तेरे कैफ़ की तासीर
ऐ तू के लिए दिल में है फ़रियादे नयसतां
सरहिंद की मिट्टी है तेरे दम से फ़रोज़ां
भारत के मुसलमां भारत के मुसलमां
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जगन्नाथ आज़ाद(1918-2004) : उर्दू के मशहूर शायर;ईसाखेल,पश्चिमी पंजाब में जन्म;पंजाब यूनिवर्सिटी,लाहौर से फ़ारसी में एम.ए.;मुहम्मद अली ज़िन्ना ने उनसे पाकिस्तान का राष्ट्रगीत लिखने का अनुरोध किया था;आज़ाद ने लिखा भी और वह जिन्ना की मृत्युपर्यंत लगभग डेढ़ वर्ष तक पाकिस्तान का राष्ट्रगीत रहा, तत्पश्चात हफ़ीज़ जलंधरी का लिखा नया राष्ट्रगीत मान्य हुआ; विभाजन के बाद लाहौर छोड़ने को बाध्य हुए;जगन्नाथ आज़ाद अपने अंतिम समय में भारत और पाकिस्तान के लिए शांति का एक गीत लिखना चाहते थे.
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( यदि उर्दू नज़्म के देवनागरी लिप्यंतरण में कोई भूल हो तो कृपया ज़रूर बताएं ताकि सुधार किया जा सके )
Posted by: PRIYANKAR | मार्च 1, 2007
जगन्नाथ आज़ाद की नज़्म : भारत के मुसलमां (1949)
बिना श्रेणी में प्रकाशित किया गया
इस हरे रंग से पढने में तकलीफ हो रही है, बंधु. इसका कुछ कर नहीं सकते? सादे काले में ही क्यों नहीं रहने देते?
-प्रमोद सिंह
By: cineman on मार्च 1, 2007
at 8:54 पूर्वाह्न
प्रिय भाई,
आपकी बात सही है. थोड़ी मुश्किल हुई पर आपकी बात रख सका इसकी खुशी है. हालांकि एकाध शब्द थोड़े इधर-उधर हो गए हैं. शायर का थोड़ा-सा परिचय भी दे दिया है.
— प्रियंकर
By: प्रियंकर on मार्च 1, 2007
at 12:12 अपराह्न
बहुत सुन्दर नज़्म पेश की आपने साधूवाद।
काश आजाद जी की बात मुसलमानों ने समझी होती और सारे हिन्दू आजाद जी के जैसी सोच वाले होते या उन जैसे बड़े दिल वाले होते, तो आज भारत की तस्वीर कुछ और ही होती।
By: सागर चन्द नाहर on मार्च 1, 2007
at 3:43 अपराह्न
उर्दू को ऊँची आवाज़ में पढ़ना मुझे बहुत अच्छा लगता है हालाँकि कई शब्दों का अर्थ समझ नहीं आता फ़िर भी भाव समझ आ जाता है.
By: सुनील on मार्च 1, 2007
at 9:00 अपराह्न
बस आपका साधुवाद करना चाहूँगा जो आप जगन्नाथ आज़ाद की ऐसी नायाब चीज लेकर आये. मैं बहुत कम इंटरनेट पर उपलब्ध रचनाओं को हाथ से लिखकर उन्हें अपनी डायरी में सजाता हूँ. आज काफी अरसे बाद आपने मुझे डायरी खोलने और कलम उठाने को मजबूर कर दिया. बहुत आभार आपका.
By: समीर लाल on मार्च 2, 2007
at 1:32 पूर्वाह्न
वाह ! सुनील जी ने सही कहा कि कई शब्दों के अर्थ न भी समझ पाने के बावज़ूद भाव दिल में उतर जाता है । अगर इसे तरन्नुम में पढा जाय तो क्या बात ।
शुक्रिया सबों से बाँटने के लिये ।
By: प्रत्यक्षा on मार्च 2, 2007
at 4:55 पूर्वाह्न
बेहद खूबसूरत नज़्म है , इस बाँटने के लिये शुक्रिया ।
काफ़ी बरस पहले एक राही मासूम रज़ा साहब की नज़्म पढी थी, याद आ रही है, आज भी याद करता हूँ तो सिरहन सी होती है:
स्मॄति से दे रहा हूँ , यदि गलती हो तो बतायें :
—
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो
मेरे उस कमरे को लूटो जिस में मेरी बयाज़े जाग रही हैं
और जिस में मैं तुलसी की रामायण से सरगोशी कर के
कालिदास के मेघदूत से ये कहता हूँ
मेरा भी एक संदेशा है
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो
लेकिन मेरी रग रग में गंगा का पानी दौड रहा है
मेरे लहू से चुल्लू भर कर
महादेव के मूँह पर फ़ेंको
और उस जोगी से ये कह दो
महादेव !
अपनी इस गंगा को वापस ले लो
ये ज़लील तुरकों के बदन में
गाढा गर्म लहू बन बन कर दौड रही है ।
—-
By: अनूप भार्गव on मार्च 6, 2007
at 4:43 पूर्वाह्न
आवेग के क्षणों में ऐसी स्मृति ही हमको सहज और स्वस्थ रख सकती है, इसे तो सबको याद करना चाहिए और अन्य मतावलंबियों के लिए भी ऐसी ही प्रस्तुतियां रखनी चाहिए कि हम सब भाईचारा बनाये रखें.
By: सुरेन्द्र वर्मा on अक्टूबर 5, 2009
at 12:52 अपराह्न
बहुत अच्छा लगा इसे दुबारा पढ़ते हुये। यह नज्म समझाइस के अन्दाज में कही गयी है। इसी तरह की बात को ठसके से अपने खास तेवर में कहते हुये राहत इंदौरी कहते हैं- हमारा भी खून शामिल है यहां की मिट्टी में, किसी के बाप का हिंदुस्तानत थोड़ी है।
By: अनूप शुक्ला on मार्च 14, 2007
at 2:35 अपराह्न
बहुत सुंदर प्रियंकर जी.
By: Harsha Prasad on सितम्बर 10, 2009
at 4:42 पूर्वाह्न
‘ऐ पाक सराजमीं’ – पाकिस्तान का यह राष्ट्रगीत अल्लामा इक़बाल का लिखा नहीं है ?
By: अफ़लातून on सितम्बर 10, 2009
at 1:48 अपराह्न
सरजमीं*
By: अफ़लातून on सितम्बर 10, 2009
at 1:48 अपराह्न