Posted by: PRIYANKAR | मार्च 14, 2007

कुछ और : मनमोहन की एक कविता

कुछ और

 

भाइयो

बात थी कुछ और

जैसी कही गई

या समझी गई

वैसी न थी

या जैसी कि बन गई

 

जहां तक कुछ और की बात है

तो उसके बारे में कुछ और भी कहा जा सकता है

 

जैसे हम करते रहे कुछ-कुछ

बहुत कुछ करते रहे जबकि

हमें करना था कुछ और

 

और जैसे हम कहते रहे

हमें कुछ और वक्त चाहिए

जबकि सच तो ये है कि हमें चाहिए था

वक्त ही कुछ और ।

 

********

 

( समकालीन सृजन के ‘कविता इस समय’ अंक से साभार )

 


Responses

  1. सच ! हमें भी चाहिये था वक्त ही कुछ और ।

  2. जबकि सच तो ये है कि हमें चाहिए था,वक्त ही कुछ और ।
    अच्छा है!

  3. बहुत खूब-सभी कुछ तो कह दिया जबकि कहना था कुछ और!!

    वाह, क्या बात है. प्रियंकर भाई, आप लाते बहुत बढ़िया चुनिंदा सामग्री हैं! बधाई!!

  4. a gud poetry.. nice to read.. gud collection..

  5. ….जबकि सच तो ये है कि हमें चाहिए था

    वक्त ही कुछ और ।


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