राजेश जोशी की एक कविता
निराशा
निराशा एक बेलगाम घोड़ी है
न हाथ में लगाम होगी न रकाब में पांव
खेल नहीं उस पर गद्दी गांठना
दुलत्ती झाड़ेगी और ज़मीन पर पटक देगी
बिगाड़ कर रख देगी सारा चेहरा-मोहरा
बगल में खड़ी होकर
ज़मीन पर अपने खुर बजाएगी
धूल के बगूले बनाएगी
जैसे कहती हो
दम है तो दुबारा गद्दी गांठो मुझ पर
भागना चाहोगे तो भागने नहीं देगी
घसीटते हुए ले जाएगी
और न जाने किन जंगलों में छोड़ आएगी !
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( समकालीन सृजन के ‘कविता इस समय’ अंक से साभार )
बहुत सही बात कह गये कवि राजेश जी! प्रस्तुत करने के धन्यवाद!
By: अनूप शुक्ला on मार्च 23, 2007
at 4:25 अपराह्न