शुभा की एक कविता
बूढी औरत का एकांत
बूढी औरत को
पानी भी रेत की तरह दिखाई देता है
कभी-कभी वह ठंडी सांस छोड़ती है
तो याद करती है
बचपन में उसे रेत
पानी की तरह दिखाई देती थी ।
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( समकालीन सृजन के ‘कविता इस समय’ अंक से साभार )
शुभा की एक कविता
बूढी औरत का एकांत
बूढी औरत को
पानी भी रेत की तरह दिखाई देता है
कभी-कभी वह ठंडी सांस छोड़ती है
तो याद करती है
बचपन में उसे रेत
पानी की तरह दिखाई देती थी ।
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( समकालीन सृजन के ‘कविता इस समय’ अंक से साभार )
कविताएं/Poems में प्रकाशित किया गया | टैग: शुभा
नावक के तीर की तरह
By: धुरविरोधी on मई 11, 2007
at 6:56 पूर्वाह्न
संवेदनशील कविता ।
By: sujata on मई 11, 2007
at 7:21 पूर्वाह्न
ओहss!
By: प्रमोद सिंह on मई 11, 2007
at 9:00 पूर्वाह्न
वाह!! कम शब्दों में संपूर्ण भाव.
By: समीर लाल on मई 11, 2007
at 12:55 अपराह्न
सुन्दर!!
By: रचना on मई 11, 2007
at 1:43 अपराह्न
बहुत खूब!
By: अनूप शुक्ला on मई 12, 2007
at 6:40 पूर्वाह्न
शुभा की कविताएं कम छपती हैं, लिखती भी कम हैं पर लाजवाब लिखती हैं
By: धीरेश सैनी on मार्च 20, 2009
at 11:06 पूर्वाह्न
अति भावुक कविता।
By: "रज़िया" on जून 12, 2009
at 11:25 पूर्वाह्न