गीत चतुर्वेदी की एक कविता
असंबद्ध
कितनी ही पीड़ाएं हैं
जिनके लिए कोई ध्वनि नहीं
ऐसी भी होती है स्थिरता
जो हूबहू किसी दृश्य में बंधती नहीं
सुबह ओस से निकलती है
मन को गीला करने की जिम्मेदारी उस पर है
शाम को झांकती है बारिश से
बचे-खुचे को भिगो जाती है
धूप धीरे-धीरे जमा होती है
कमीज और पीठ के बीच की जगह में
रह-रहकर झुलसाती है
माथा चूमना
किसी की आत्मा चूमने जैसा है
कौन देख पाता है
आत्मा के गालों को सुर्ख होते
दुख के लिए हमेशा तर्क तलाशना
एक खराब किस्म की कठोरता है ।
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( समकालीन सृजन के ‘कविता इस समय’ अंक से साभार )
माथा चूमना
किसी की आत्मा चूमने जैसा है
कौन देख पाता है
आत्मा के गालों को सुर्ख होते
—बहुत गहरे भाव!!
By: समीर लाल on मई 22, 2007
at 10:42 पूर्वाह्न
sundar rachanaa hai.
दुख के लिए हमेशा तर्क तलाशना
एक खराब किस्म की कठोरता है ।
By: paramjitbali on मई 22, 2007
at 7:46 अपराह्न
अच्छी कविता हैं।
with regards
hemjyotsana
जब ख़ताऐं करता था मैं तो जिन्दगी देती थी नसीहत मुझको।
अब नहीं करता हुँ कुछ ,तब भी जिन्दगी चार बातें सुना गई ।
By: hemjyotsana parashar on मई 23, 2007
at 8:37 पूर्वाह्न
kamaal ki kavita hai. bahut gahri aur avsaad se bhari hui. shayad kavi ne dukh ke gahan palo me likhi hogi ye. mere mann ko chhoo gai.
By: kumar pracheer on सितम्बर 4, 2007
at 6:27 अपराह्न
gazab!
By: rksethi on जून 17, 2008
at 10:05 अपराह्न