Posted by: PRIYANKAR | मई 22, 2007

कितनी ही पीड़ाएं हैं……

गीत चतुर्वेदी की एक कविता

 

 

असंबद्ध

 

कितनी ही पीड़ाएं हैं

जिनके लिए कोई ध्वनि नहीं

ऐसी भी होती है स्थिरता

जो हूबहू किसी दृश्य में बंधती नहीं

 

सुबह ओस से निकलती है

मन को गीला करने की जिम्मेदारी उस पर है

शाम को झांकती है बारिश से

बचे-खुचे को भिगो जाती है

 

धूप धीरे-धीरे जमा होती है

कमीज और पीठ के बीच की जगह में

रह-रहकर झुलसाती है

 

माथा चूमना

किसी की आत्मा चूमने जैसा है

कौन देख पाता है

आत्मा के गालों को सुर्ख होते

 

दुख के लिए हमेशा तर्क तलाशना

एक खराब किस्म की कठोरता है ।

 

***********

 

( समकालीन सृजन   के ‘कविता इस समय’ अंक से साभार )

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Responses

  1. माथा चूमना

    किसी की आत्मा चूमने जैसा है

    कौन देख पाता है

    आत्मा के गालों को सुर्ख होते

    —बहुत गहरे भाव!!

  2. sundar rachanaa hai.
    दुख के लिए हमेशा तर्क तलाशना

    एक खराब किस्म की कठोरता है ।

  3. अच्छी कविता हैं।
    with regards
    hemjyotsana
    जब ख़ताऐं करता था मैं तो जिन्दगी देती थी नसीहत मुझको।
    अब नहीं करता हुँ कुछ ,तब भी जिन्दगी चार बातें सुना गई ।

  4. kamaal ki kavita hai. bahut gahri aur avsaad se bhari hui. shayad kavi ne dukh ke gahan palo me likhi hogi ye. mere mann ko chhoo gai.

  5. gazab!


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