भवानीप्रसाद मिश्र की एक कविता
सिद्धांत और विवेक
सिद्धांतों ने मेरे विवेक को
कुतरने की कोशिश की
इसलिए मैंने सिद्धांतों के दांतों को
जरा और पास से परखा
सिद्धांत तब मुझे कुरूप दिखे
मैंने देखा कि उन्हें मेरे भीतर
किसी ने बड़े कौशल के साथ
धंसा दिया है चुपचाप
जिनकी मेरे विवेक से
कोई संगति नहीं है
उन्हें मेरे विवेक में बनाकर घोंसले
यों बसा दिया है
कि अब वे वहां अंडे देते हैं
और बढाते चलते हैं
अपना परिवार
मैं चौकन्ना हो गया हूं
और सिद्धांत मेरे सामने जब
पेश किया जाता है कोई
तो मैं उसके चेहरे को नहीं देखता
उससे कहता हूं मुंह खोलो
और अपने दांत दिखाओ
तुम्हारे दांतों में
खून तो नहीं लगा है
इसके या उसके विवेक का
किसी एक का भी विवेक
हज़ारों लोगों के तय किये हुए
सिद्धांत से ज्यादा पवित्र है
प्यारा है
विवेक ध्रुवतारा है
सिद्धांत एक लकीर पिटी हुई
मैं सिद्धांतॊं की तरफ़
चौकन्ना हो गया हूं
नियमवादियों ने मुझे
भवानीप्रसाद मिश्र तय किया था
अपनी बेटी के बल पर मैं
मन्ना हो गया हूं ।
*************
पढ़कर अच्छा लगा । टिप्पणी करने की मेरी क्षमता नहीं है ।
घुघूती बासूती
By: ghughutibasuti on जून 6, 2007
at 3:55 अपराह्न
यह क्या है? सिद्धांत रोड़े हैं? शायद हां. अगर उनपर मनन न किया जाये तो कुछ समय बाद वे अतीत का सत्य और वर्तमान का अविवेक बन कर सामने आते हैं. सिद्धांतों का समय-समय पर मंथन/वलिडेशन जरूरी है.
By: Gyandutt Pandey on जून 7, 2007
at 7:13 पूर्वाह्न
अपनी बेटी के बल पर मैं
मन्ना हो गया हूं ।
——-
कृपया स्पष्ट करें
By: manoj on जून 16, 2009
at 10:12 पूर्वाह्न
bahut achchha..
By: shraddhandhu shekhar on सितम्बर 2, 2016
at 6:06 अपराह्न