मेरा दुख
मैं सिंगूर पर दुखी नहीं हूं
मैं दुखी हूं
इस देश के शरीर पर
फोड़ों की तरह उगते सिंगूरों पर
मेरी चिंता का विषय है
इस कृषिप्रधान देश का सिंगूरीकरण
कटहल-कौहंड़े वाले इस देश का अंगूरीकरण
अब दुआ से नहीं बचेगा मरीज़
पर यह भी तो नहीं मालूम
दवा से होगा कुछ लाभ
या शल्य-चिकित्सा से ही
संभव हो सकेगा रोग का उपचार ।
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क्या कटहल/कोंहड़ा और औद्योगीकरण में विरोध है? मेरे विचार से नहीं. मैं Law of Abundance में विश्वास करता हूं. राजनेताओं को मेस-अप नहीं करना चाहिये.
By: Gyandutt Pandey on जून 7, 2007
at 7:20 पूर्वाह्न
ज्ञानदत्त जी की बात विचारणीय है (पहली पंक्ति).. वैसे ये ठीक नहीं लग रहा.. कविता अभी ठीक से शुरू भी नहीं हुई थी.. और आपने गप्प् से खतम भी कर दिया.. ?
By: प्रमोद सिंह on जून 7, 2007
at 8:30 पूर्वाह्न
पर ज्ञान जी! यहां ‘लॉ ऑफ़ अबन्डन्स’ — प्रचुरता या बाहुल्य का नियम — कहां है ? यहां तो एक की कीमत पर दूसरे को — एक को नष्ट कर दूसरे को लाया जा रहा है . बिना ज़मीनी सच्चाई को देखे .
बल्कि यहां अगर छूट है भी तो धूमिल की भाषा का सहारा लूं तो कह सकता हूं कि यहां ‘ घोड़े और घास को एक जैसी छूट है’ . और यह भी कि लोहे का स्वाद लोहार से नहीं घोड़े से पूछना होगा जिसके मुंह में लगाम है .
कृपया कटहल-कौहंड़े और अंगूर को प्रतीक भर मानें . अंगूर मेरे बेटे को भी बहुत अच्छे लगते हैं . अंगूर के मौसम में बीच-बीच में उसकी इच्छा पूरी हो इसका यथासंभव प्रयास भी करता हूं . पर इस देश के बहुत से बच्चों को कटहल और कौहंड़ा भी मयस्सर नहीं है . और अब तो यह उन्हें मयस्सर होगा यह उम्मीद भी धुंधलाती जा रही है . बस यही दुख है .
बाकी विकास मुझे भी काटता थोड़े ही है . मैं भी विकसित भारत में रहना चाहता हूं . पर मेरा विकसित भारत अभाव के विशाल महासागर से घिरा कुछ लोगों के निजी सुख का द्वीप नहीं है, जिसमें जबर्दस्ती किसानों की जमीनें छीन ली जाती हों .
By: प्रियंकर on जून 7, 2007
at 10:13 पूर्वाह्न
अरे भूचाल वाले अग्रज जी सही कह रहे हैं यही जान के तो रिलायंस नें कुम्हडा बेचना शुरू कर दिया और अमिताभ किसान बन गये । अरे भाई प्रियंकर जी के भावो को जीने दो ये बीमारी न दवा से ठीक होने वाली न शल्यक्रिया से रामदेव जी भी हार थक गये हैं हम सब, बस शव्दों को पी रहे हैं । प्रियंकर जी को साधुवाद ।
By: Sanjeeva Tiwari on जून 7, 2007
at 10:15 पूर्वाह्न
ज्ञान जी की बात हमेशा विचारणीय है प्रमोद भाई . कटहल-कौहंड़ा और अंगूर/इंडस्ट्रियलाइजेशन को प्रतीक भर मानें जैसे गुलाब और कुकुरमुत्ता को मानते आये हैं .
कविता की उठान और समाप्ति के बारे में आप ठीक कह रहे हैं . कल इसी विषय पर एक और कविता पोस्ट करूंगा . उसमें थोड़ा विस्तार है .आशा करता हूं कि आपको भाएगी .
By: प्रियंकर on जून 7, 2007
at 10:21 पूर्वाह्न
भई, अपना तो यही मानना है, अति किसी भी चीज की ठीक नही। लगाम जरुरी है। इस देश को अतिवाद से मुक्ति चाहिए, चाहे वो पूँजीपतियों का हो या फिर वामपंथियों का।
समग्र विकास की धारा बहे, हम भले ही बाजारवाद यहाँ ले आएं, लेकिन उसका स्थानीयकरण होना चाहिए, भारतीयता के हिसाब से। लेकिन परेशानी ये है कि लंगूरो के हाथ मे तलवार है। कभी इधर काट, कभी उधर काट। नुकसान तो जनता का ही हो रहा है।
By: जीतू on जून 7, 2007
at 10:35 पूर्वाह्न
सही है आप कह रहे हैं कि कृषिप्रधान देश का सिंगुरीकरण हो रहा है और शल्य चिकित्सा से ही उपचार संबव है। पर यह इलाज करे कौन?
हर शाख पे उल्लू बैठा है,…………….. अंजाम तो यह होना ही था।
By: सागर चन्द नाहर on जून 7, 2007
at 11:27 पूर्वाह्न
प्रियंकर जी,
आपकी कविता बहुत अच्छी लगी….
कृपया “sanjeeva tiwari” के नीचे लिखे विचार पर हमें अपने विचारों से अवगत करायें …..धन्यवाद
“अरे भाई प्रियंकर जी के भावो को जीने दो ये बीमारी न दवा से ठीक होने वाली न शल्यक्रिया से रामदेव जी भी हार थक गये हैं हम सब, बस शव्दों को पी रहे हैं”
By: reetesh gupta on जून 7, 2007
at 12:20 अपराह्न
सही है! अगली कविता का इंतजार है!
By: अनूप शुक्ल on जून 7, 2007
at 2:00 अपराह्न
प्रियंकर जी, आपके चिठ्ठे पर कविता इतनी दिल को छ जाती हैं कि मैं टिप्पणी करने लायक नहीं रहता.
By: धुरविरोधी on जून 7, 2007
at 2:49 अपराह्न
“. मैं भी विकसित भारत में रहना चाहता हूं . पर मेरा विकसित भारत अभाव के विशाल महासागर से घिरा कुछ लोगों के निजी सुख का द्वीप नहीं है, जिसमें जबर्दस्ती किसानों की जमीनें छीन ली जाती हों ”
मेरा हाथ इसकी स्वीकृति में उठा है.
By: धुरविरोधी on जून 7, 2007
at 2:51 अपराह्न
मैने लगता है व्यर्थ में कंफ्यूजन शृजित कर सुन्दर भावों की एक कविता को विवाद का विषय बना दिया है. मेरी सबसे पहले की टिप्पणी है ही असामान्य सी. मां काली जब शृजन का प्रारम्भ करती हैं, तो वह बड़ा भीषण होता है. उनके पदाघात में न जाने कितने विस्थापित हो जाते हैं. विश्व युद्ध/व्यापक युद्ध इसी प्रकार के कार्य होते है. आदिमानव>कृषि प्रधान अर्थ व्यवस्था>औद्योगीकरण>नॉलेज बेस्ड इकानामी के ट्रांजीशन बड़े ही वेदनायुक्त और उथल-पुथल वाले होते हैं. लेकिन अंतत: जब मां काली अपना कार्य समाप्त कर शृजन की सूक्ष्म प्रकिया मां सरस्वती को सौपती हैं तो सब कुछ व्यवस्थित और एक दूसरे ही धरातल पर होने लगता है.
काली और सरस्वती – दोनों के शृजन,शृजन ही हैं. मां के आचल में असीम विस्तार है – असीम सम्भावनायें. मैं Law of Abundance उसी से जुड़ा पाता हूं. साठ के दशक में भारत के अभावों को देखें. तब लगता था कि देश जनसंख्या की बढ़ोतरी झेल ही नहीं पायेगा. पी.एल. 480 के गेंहू से अबतक कितना परिवर्तन है. कितनी अधिक जन संख्या का पेट भर रहा है. और आगे भी नैराश्य के साथ-साथ समाधान भी नजर आ रहे हैं. अभी भी यह धरती कितने अधिक का पालन करेगी – कौन जानता है. विश्व मरने के कगार पर है की भविष्यवाणी वाले दार्शनिक विश्व में सिनिसिज्म फैलाने के अलावा कुछ नहीं करते.
हां, इस ट्रांजीशन में ग्रामीण का ट्रांजीशन (जो होगा ही – कृषि अगर ज्यादा कारगर उत्पादन में परिवर्तित होगी) कैसे हो जो कमसे कम वेदनायुक्त हो – वह सोच का विषय है. रिलायंस/टाटा/ग्रामीण का द्वन्द्व व्यापक परिवर्तन का द्वन्द्व है. यह निरीह पर असुर के विजय का द्वन्द्व नहीं है. भविष्य में आसुरिक शक्तियां देश पर राज्य करने वाली हैं – यह मैं नहीं मानता.
हां, राजनेता अपना रोल ईमानदारी से अदा नहीं कर रहे. अभी गुज्जर आन्दोलन (?) के प्रकरण में यह मैने गहराई से महसूस किया है. इसी लिये मैने टिप्पणी की थी – राजनेताओं को मेस-अप नहीं करना चाहिये.
राजनेताओं को नन्दीग्राम और सिंगूर में सार्थक रोल अदा करना चाहिये.
खैर, यह मैने जान लिया कि हिन्दी ब्लॉगरी में टिप्पणियां मात्र “आपने बहुत अच्छा लिखा/बहुत सुन्दर/धन्यवाद” छाप ही होनी चाहियें!
By: Gyandutt Pandey on जून 7, 2007
at 10:53 अपराह्न
प्रियंकर जी अच्छी कविता है । साधुवाद
By: yunus on जून 8, 2007
at 4:05 पूर्वाह्न