प्रियंकर की एक कविता
वृष्टि-छाया प्रदेश का कवि
मैं हाशिये का कवि हूं
मेरी आत्मा के राग का आरोही स्वर
केन्द्र के कानों तक नहीं पहुंचता
पर पहुंच ही जाते हैं मुझ तक
केन्द्र की विकासमूलक कार्य-क्रीड़ाओं के अभिलेख
केन्द्र के अपने राजकीय कवि हैं
— प्यारे ‘पोएट लॉरिएट’
केन्द्रीय मह्त्व के मुद्दों पर
पूरे अभिजात्य के साथ
सुविधाओं का अध्यात्म रचते
जनता के सुख-दुख की लोल-लहरों से
यथासंभव मिलते-बचते
हाशिए के इस अनन्य राग के
विलंबित विस्तार में
मेरे संगतकार हैं
जीवन के पृष्ठ-प्रदेश में
करघे पर कराहते बीमार बुनकर
रांपी टटोलते बुजुर्ग मोचीराम
गाड़ी हांकते गाड़ीवान
खेत गोड़ते-निराते
और निश्शब्द
उसी मिट्टी में
गलते जाते किसान
मेरी कविता के ताने-बाने में गुंथी है
उनकी दर्दआमेज़ दास्तान
दादरी से सिंगूर तक फैले किसानों का
विस्थापन रिसता है मेरी कविता से
उनके दुख से भीगी सड़क पर
मुझसे कैसे चल सकेगी
एक लाख रुपये की कार
निजीकरण और मॉलमैनिया के इस
मस्त-मस्त समय में
देरी दूरी और दहशत के बावजूद
सार्वजनिक वाहन के भरोसे बैठे
हाशिये के कवि को
अपने पैरों पर भरोसा
नहीं छोड़ना चाहिये ।
*************
प्रियंकर जी, हाशिये के कवि ही हाशिये के लोगों का दुख दर्द समझ सकते हैं । जब अधिकतम लोग हाशिये में जीते हों और न्यूनतम मुट्ठी भर लोग ही मुखपृष्ठ पर हों कवि भी हाशिये पर ही खिसका दिये जाते हैं । अपने पैर तो सदा अपने ही रहेंगे बाँकी सब तो कभी भी साथ छोड़ सकते हैं ।
कविता मन को झिंझोड़ने वाली हैं । कुछ पल को तो सोचने को मजबूर कर देती है ।
घुघूती बासूती
By: ghughutibasuti on जून 8, 2007
at 9:04 पूर्वाह्न
दुख से भीगी सड़क पर दुख के सघन बिम्बों, चोट की दहशत और बैरी होते समय की बनिस्बत अब भी तीन कदम आगे-आगे चलती है- कुछ भीनी, रसभीगी साहित्यिकता.. रफ़नेस कहां है?.. विस्थापन की रगड़-घसड़ कहां है?.. शायद मैं बहक रहा हूं.. जितना मुंह खोलना था उससे कहीं ज्यादा बक रहा हूं..
इतना ही है क्या कम है कि कवि अब भी अपने पैरों पर खड़ा है.. अपने पैरों पर भरोसा नहीं छोड़नेवाले कवि को सलाम..
By: प्रमोद सिंह on जून 8, 2007
at 9:06 पूर्वाह्न
अपने पैर पर जो खड़ा नहीं हो सकता – चाहे वह हाशिये का कवि हो, केन्द्र का राज-
कवि या लखटकिया कार बनाने वाला – चल नहीं पायेगा. यहां ही नहीं, कहीं भी – सात समन्दर पर भी.
हाशिये पर होना जीवन में स्नैप शॉट है – शायद अच्छे फोटो वाले का बुरा शॉट. पर पैर पर होना तो जीवन है – समग्र जीवन.
By: Gyandutt Pandey on जून 8, 2007
at 9:57 पूर्वाह्न
अच्छा लगा पढ़कर …
By: reetesh gupta on जून 8, 2007
at 12:02 अपराह्न
निजीकरण और मॉलमैनिया के इस
मस्त-मस्त समय में
देरी दूरी और दहशत के बावजूद
सार्वजनिक वाहन के भरोसे बैठे
हाशिये के कवि को
अपने पैरों पर भरोसा
नहीं छोड़ना चाहिये ।
वो सुबह कभी तो आयेगी
By: shilpasharma on जून 8, 2007
at 12:42 अपराह्न
[…] प्रियंकर, अपनी कविता वृष्टि-छाया प्रदेश का कवि […]
By: DesiPundit » Archives » हाशिये के कवि on जून 8, 2007
at 2:02 अपराह्न
सभ्यता के हाशिए पर जी रहे लोगों के बारे में कला को बेच कार खरीदने वाले नहीं सोचेंगे । वृष्टि छाया प्रदेश का बासिन्दा ही पानीदार होगा । वह पानी – पानी कर सकता है उन सब को जो सिर्फ व्यवस्था से खुद न जुड़ पाने से व्यथित हैं – ऐसों की व्यथा यह नहीं कि यह व्यवस्था अधिकतर को हाशिए पर ढकेले जा रही है।
आभार ।
By: afloo on जून 8, 2007
at 2:38 अपराह्न
यह मेरे समझ के बाहर है कि कोई अादमी हिॅदी कविता तमिऴ लिपि मे क्यो पढेगा? एक तो यह है कि इन दो लिपियोॅ के बीच अनुवाद मानचित्र जो आप लेकर चल रहे हैॅ वह तो एकदम त्रुटिपूर्ण है| दूसरी बात यह भी है कि अगर इसका अॅग्रेजी मेॅ लिपीकरण (transliteration) होवे तो मेरे मत मेॅ अधिक लोग आपके वाङमय का आनन्द उठा पायेॅगे | तीसरी यह भी है कि जो तमिऴ बोलनेवाला इस कविता कि भाषा समझ सकता है वह प्राय: हिॅदी लिपि से भी परिचित होगा|
अगर आप चाहेॅ तो मैॅ इस कविता की तमिऴ लिपीकरण कर सकता हूॅ| परन्तु यह प्रतीत होता है कि यहाॅ कोई यन्त्र के माध्यम से लिपीकरण हो रहा है|
By: Srinivasa on जून 8, 2007
at 11:35 अपराह्न
निश्चित रूप से वाङमय के विषय मेॅ अर्थात् निजीकरण, माॅलमेनिया, globalization इत्यादि विषयोॅ मेॅ पीडा बहुत है| फिर भी कभी यूॅ लगता है कि यन्त्र के द्वारा कोई अन्य लिपि को विकलाॅग कर देना उतना ही पीडाजनक हो सकता है|
अगर कोई सहायता चाहते हो तो आपका सेवक उपस्थित है|
By: Srinivasa on जून 9, 2007
at 2:19 पूर्वाह्न
कविता को विमर्श हेतु चुनने के लिए आपको नमन . सत्ता के साथ ऎसे भी विवाद
हो सकता है.
आशुतोष
By: ASHUTOSH on जून 12, 2007
at 11:56 पूर्वाह्न