पवन मुखोपाध्याय की एक कविता
( बांग्ला से अनुवाद : प्रियंकर )
रोटी और गुलाब
हज़ारों सूने रसोईघरों और बंद कल-कारखानों से
एक सहज रोज़मर्रा के दिन की ओर
जहां चाहिए रोटी और गुलाब दोनों
जब तक शेष है हमारी जीवंतता
भूखा पेट और भूखा मन चाहता है
रोटी और गुलाब दोनों ही …
भूख का गीत और संगीत जीवन ने अर्जित किया
सौंदर्य और प्रेम से परे नहीं है भूख
जैसे जन्म देने के लिए नारी झेलती है यंत्रणा
भूख और सौंदर्य दोनों के लिए लड़ते रहे हैं लोग
रोटी और गुलाब के बीच जीवन कहीं बंट जाता है
कहीं अलग-सा लगता है
हाथ बंटाना होगा इसी दुविधा के बीच
इस बार भी ….
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( बांग्ला लघु पत्रिका हवा४९ के पोस्ट-मॉडर्न बांग्ला पोएट्री पर केन्द्रित अंक ‘अधुनांतिक बांग्ला कविता’ से साभार )
Saargarbhit.. aur maanaw jeewan ke satya ko prakat kartee kawita.. sach hai maanaw mann.. pet aur mann ki bhookh ke beech uljhaa rahta hai hameshaa..
By: manya on जून 12, 2007
at 9:58 पूर्वाह्न
पढ़ कर अच्छा लगा
By: PRAMENDRA PRATAP SINGH on जून 12, 2007
at 11:21 पूर्वाह्न
जब स्कूल में थे तो रामवृक्ष बेनीपुरी जी का एक लेख पढ़ा था ‘गेहूँ और गुलाब’। भूख और भावनाएँ दोनों ही मानव जीवन की अभिन्न कड़ी हैं ऐसा ही कुछ संदेश था बेनीपुरी जी का। इस कविता मे अन्तरनिहित भावनाएं उस लेख की याद दिला गईं।
By: Manish on जून 12, 2007
at 11:51 पूर्वाह्न
डा. रमा द्विवेदी….
प्रेम और भूख दोनों ही मानव जीवन के शाश्वत सत्य हैं….बहुत अच्छी कविता के लिए बधाई
By: ramadwivedi on जून 12, 2007
at 2:53 अपराह्न
बहुत अच्छी कविता । मनीष ने सही कहा मुझे भी बेनीपुरी जी की रचना याद आ गयी । ये पंक्तियां कमाल की हैं—– भूख का गीत और संगीत जीवन ने अर्जित किया
सौंदर्य और प्रेम से परे नहीं है भूख
जैसे जन्म देने के लिए नारी झेलती है यंत्रणा
भूख और सौंदर्य दोनों के लिए लड़ते रहे हैं लोग
By: yunus on जून 12, 2007
at 3:34 अपराह्न
बहुत अच्छी लगी.
By: समीर लाल on जून 12, 2007
at 3:41 अपराह्न
एक शानदार कविता…।
जीवन का खाली पन कोमलता और मधुरता से ही भरा जाता है और यह अर्थ कविता में स्पष्ट है…।
प्रस्तुत करने का शुक्रिया।
By: divyabh on जून 12, 2007
at 4:54 अपराह्न
बहुत ही अच्छी कविता और उतना ही सुन्दर अनुवाद।
*** राजीव रंजन प्रसाद
By: राजीव रंजन प्रसाद on जून 13, 2007
at 6:46 पूर्वाह्न
प्रियंकर भाई;
रोटी और गुलाब दोनो की महक मन को छूती है.श्रम और जीवन-रस का कितना सार्थक पता देती हैं ये पंक्तियां.दुनिया की सबसे मीठी भाषाओं मे मै (व्यक्तिगत रूप से) उर्दू और बांग्ला को शुमार करता हूं.उर्दू का हिन्दी से रिश्ता क़रीबी रहा है सो काफ़ी कुछ समझ में आ जाता है लेकिन बांग्ला के अनुवाद पढने को नहीं मिलते सो मन एक क़िस्म की बैचेनी बनी रहती है.आपका अनुवाद भी लाजवाब है.मूल कविता को पढे़ बग़ैर कह सकता हूं कि हिन्दी में भी बांग्ला की आत्मा जीवित है.आगे इस सिलसिले को जारी रखियेगा.
By: संजय पटेल on जून 14, 2007
at 7:53 पूर्वाह्न