आना फ़ुरसतिया का और लौटना एक आत्मीय मित्र का
सप्ताह भर से वाइरल दबोचे था . मन-प्राण में एक अज़ब किस्म की विकलता थी . अवचेतन में कहीं एक पुकार थी कि कोई मित्र आए और मिज़ाज पुरसी करे . थोडा धौल-धप्पा करे और कहे कि बहुत हुआ वाइरल का व्यसन, अब उठो और थोड़ा काम-धाम शुरु करो . क्या आदमी हो जो इतने में पस्त हो गए . ऐसे में अनूप भाई का यह समाचार कि वे कोलकाता आ रहे हैं और मिलना-बतियाना होगा, खुदाई मेहर लगी .
अनूप शुक्ल यानी हिंदी के शीर्षस्थानीय — वरिष्ठतमेस्ट — ब्लॉगर के रूप में मशहूर नाम, नारद के संकटमोचक, बेहतरीन किस्म के खिलंदड़े गद्य के सुलेखक और साहित्य के अनूठे आस्वादक और प्रस्तोता . जब तक यह अनामदास, प्रमोद,ज्ञानदत्त और रवीश का चौगड्डा नहीं अवतरित हुआ था, डायलॉग डिलीवरी के थोड़े-बहुत नुक्स के बावज़ूद हमारे नारदाकाश के एकमात्र सुपरस्टार — नारद के अमिताभ बच्चन — वही थे .
संतुलन,समायोजन,समंजन और आसंजन का सबसे सुष्ठु एकाकार रूप देखना हो अनूप भाई को देख लीजिए .फिर कहीं और नज़र डालने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी. ग्रियर्सन ने तुलसी के संदर्भ में, और बाद में शायद हज़ारी बाबू ने भी किसी संदर्भ में, कहा था कि भारत में जननायक वही हो सकता है जो विविधताओं से भरे इस महादेश में समन्वय को साध सके . सो आभासी नारदालोक में समन्वय की सारी तरंगें कानपुर की अर्मापुर स्थित शक्तिपीठ में साधनारत अनूपाचार्य के जटा-जूट से ही निस्सृत होती है . नारद की वीणा पर जो भी राग बजता है उसकी स्वरलिपि प्रथमदृष्टया वही अनुमोदित करते हैं ; नारद घराने के नए,उभरते हुए और हर समय कुछ-न-कुछ तुनतुनाते रंगरूट गायक जो भी बंदिश गाते हैं उसके ‘सदारंग-अदारंग’ अपने अनूप भाई होते हैं . वाद्यवृंद — ऑरकेस्ट्रा — छोटा हो या बड़ा, वह बीथोवेन की सिंफ़नी बजाए या बप्पी लहड़ी-अनु मलिक छाप धांय-धूंय वाला ‘लिफ़्टेड’ कोलाहल, उसके ‘जुबीन मेहता’ अपने अनूप भाई ही होते हैं . नारदीय-दल में उनका वही स्थान है जो कांग्रेस में प्रणव मुखर्जी का,भाजपा में जसवंत सिंह का और समाजवादी पार्टी में अमर सिंह का है . गद्दी से वंचित कुछ लोग उन्हें नारद के ब्लॉग-अखाड़े का पट्ठे पालनेवाला महंत भी कहते हैं . खैर मामला जो भी हो, वे नारद घराने के सबसे स्वीकृत-सम्मानित ‘वाग्गेयकार’ हैं और आभासी-जगत के नए नारदीय-सूक्त के फ़ुरसतिया सूत्र एकदम स्पष्ट हैं .
तो ऐसे पण्डित अनूप सुकुल कोलकाता नगरी को पवित्तर करते भये .
२५ की शाम उनसे बात हुई . पता चला कि २६ की शाम या २७ की सुबह बैठक जमेगी . घर की मालकिन को ,जिन्हें मैं आगे प्रमिला के नाम से संबोधित करूंगा, बताया कि कानपुर से एक मित्र आ रहे हैं . बोलीं ठीक है . न उन्होंने पूछा कि कौन से मित्र, न हमने बताया कि ये वाले मित्र. ठीक ही रहा . ऊपर जो परिचय आपको बताया , वह अगर उनको बताया होता तो बिना बात ‘नरभसा’ जातीं . मित्रगण चूंकि आते रहते हैं, वे अभ्यस्त हैं .इतना ज़रूर बोलीं कि भलामानस जब आने की खबर करे तो उन्हें भी ज़रूर सूचित किया जाए . सामान्यतः होता यह है कि मित्रों की ‘आ गये हैं ‘ की हुंकार के बाद ही उन्हें पता लगता है कि वे आने भी वाले थे . २६ को शाम छह-सात बजे तक जब अनूप जी की ओर से कोई खबर नहीं मिली तो मैंने मान लिया कि अब वे अगले दिन सुबह ही आएंगे . और वही प्रमिला को भी सूचित कर दिया था . पर अनूप जी ने भी मित्रों की चिरपोषित परम्परा को समुचित सम्मान देते हुए लगभग सवा सात-साढे सात बजे घर में अपनी सशरीर उपस्थिति का उदघोष किया . घर के बिल्कुल निकट ही था कि बिटिया गौरी ने यह सुसमाचार दिया . हमने भी अशक्त शरीर से लम्बे-लम्बे डग भरे और यथासम्भव दुलकी चाल से घर की ओर चल पड़े.
इधर लिफ़्ट का बटन दबाया उधर कुछ ही क्षणों में हम घर पर थे और अपने को साक्षात फ़ुरसतिया से गले मिलता पाया . तस्वीरें कई देख चुका था . फ़िर से देखा . एकदम वही — हूबहू — ऑरिजिनल कॉपी में — सजीव . मन प्रसन्न और भावुक एकसाथ भया . प्रसन्न हुआ लगभग वर्ष भर के आभासी संवाद के पश्चात एक साथी की जीवंत उपस्थिति से . भावुक भया यह सोचकर कि इस प्रौद्योगिकी को मैं कितनी लानत-मलामत भेजता हूं,जबकि इसी की वजह से मिले एक मित्र के आत्मीय बाहु-पाश में जकड़ा खड़ा हूं .जकड़ा इसलिए था क्योंकि उधर अनूप की लहीम-शहीम काया थी और इधर अपना साठ किलो वजन और वाइरल फ़ीवर की बची-खुची टूटन संभालता मैं .
मित्र मेरे जीवन की संजीवनी हैं . किंचित गर्व के साथ इस बात की सार्वजनिक घोषणा करने का भी मन है कि इस दृष्टि से बहुत भाग्यशाली रहा हूं . बहुत-सी जगहों पर रहने का मौका मिला . और जिस जगह भी रहा, मित्रों से भरा-पूरा एक संसार हमेशा साथ रहा है, मेरी आतिशमिजाज़ी और तरेर, जिसे राजस्थानी में ‘रड़क’ कहते हैं, के बावज़ूद . और वे पुरानी ज़गहें छूटकर भी नहीं छूटीं तो सिर्फ़ इसलिए कि मित्र अब भी वहां हैं . और आज तो आभासी ताने-बाने से जुड़े एक मित्र से साक्षात्कार का मांगलिक दिन था .
इधर बात-चीत का दौर शुरु हुआ और उधर मुझे लगने लगा कि बल लौट रहा है . अपनी ही आवाज़ का भराव मुझे चौंका रहा था . बतरस के औषधीय गुणधर्म पर मेरी आस्था और पक्की होती जा रही थी .
बात-चीत में अनामदास,प्रमोद सिंह,ज्ञानदत्त पांडेय और रवीश की तारीफ़ों के पुल बांधे गए . अनामदास और रवीश के स्वच्छ भाषाई प्रवाह और संतुलित लेखन की शान में कसीदे काढे गए . प्रमोद भाई की भाषिक लोच, लोकभाषाओं-बोलियों की छौंक और अभिव्यक्ति की इच्छित परिपूर्णता की सिद्धि के लिए हिंदी के सामान्य व्याकरण को दाएं-बाएं चपतियाते उनके सुललित गद्य पर ‘मर मर जावां’ वाली स्थिति आई और थोड़ा ‘जय हो जय हो’ टाइप कुछ हुआ . तब तक ज्ञान जी बात-चीत के केन्द्र में दाखिल हो गये . मैंने उनके ‘ओपन एण्डेड’ प्रसन्न गद्य की तारीफ़ की और नए-नए शब्द ‘कॉइन’ करने की उनकी क्षमता पर बलिहारी हुआ . इधर अनूप जी ने यह सोचकर कि तारीफ़ का दैनिक कोटा कहीं ज्ञान जी तक आकर ही ‘शेष’ न हो जाए, तुरंत थोड़ा श्रेय लिया,यह कह कर कि ज्ञान जी तो बेसिकली अंग्रेज़ी के ब्लॉगर हैं और हिंदी में लिखना तो उन्होंने फ़ुरसतिया की सलाह पर ही शुरु किया है और अभी वे हिंदी में अपनी अभिव्यक्ति तलाश रहे हैं .
हमने तुरतै ‘ऑब्जेक्शन’ किया यह कह कर कि इतने अभिव्यंजक शब्दों की गढंत करने वाला यह व्यक्ति न केवल अपनी भाषा तलाश चुका है,वरन उससे खेल-खिलवाड़ भी कर रहा है . प्रमोद भाई के अनुपम दूध-जलेबी गद्य को ‘छल्लेदारतम’ घोषित करते हुए और उनके लेखन पर जब-तब तुरुप लगाते हुए हिंदीवालों के लिए ‘आकांक्षाओं के आदिवासी’ जैसा पद-बंध इस्तेमाल करने वाला कोई सिद्ध पुरुष ही हो सकता है, नौसिखिया उर्फ़ ‘सीखतोड़ा’ नहीं . सो हम अपने स्टैण्ड पर डटे रहे . ऐसा लगा अनूप जी ने भी कुछ कहा . ‘हां’ जैसा ‘न’ कहा या ‘न’ जैसा ‘हां’ कहा यह स्पष्ट नहीं हुआ .
इधर इतनी चालाकी हमने भी बरती कि फ़ुरसतिया को यह नहीं बताया कि हमें उस मराठी ग्रामीण भगवान जाधव कोली में ईश्वर के दर्शन करने वाले, भृत्य भरतलाल और राजमिस्त्री हरिश्चंद्र को अपने चिंतन एवम चिंता का केन्द्र बनाने वाले ,भिंडी-नेनुआ-सूरजमुखी को देखकर मगन-मुदित होने वाले और सीताराम सूबेदार-अमृतलाल वेगड़ की लिखंत पर बलि-बलि जानेवाले सूक्ष्म-संवेदनतंत्र के स्वामी ज्ञान जी पसंद हैं, पर इस लोककल्याणकारी राज्य के संसाधनों पर पढा-लिखा वह उच्च-भ्रू किसानोदासीन (अगर किसान-विरोधी नहीं तो) कॉरपोरेट-प्रेमी ; ‘मीक’ और लल्लू-पंजू आदमी को नापसंद करने वाला (भले बाइबल कहती रहे ‘द मीक शैल इनहेरिट द अर्थ’) और हर गरीब कर्ज़दार ‘डिफ़ॉल्टर’ को आधारभूत ढंग से बेईमान समझने वाला (इस पर कोई टिप्पणी किए बिना कि बड़े-बड़े सेठ-साहूकार राष्ट्रीयकृत बैंकों का कितना पैसा दबाए बैठे हैं) विशुद्ध अफ़सर मुझे बेचैन करता है .
इधर अनूप जी ने हमारे लिखने-पढने को लेकर थोड़ी-सी जिज्ञासा क्या प्रकट की हम पैर टिकाने की जगह पाकर परम-प्रफ़ुल्लित भए और फ़ोकस मारने के लिए (कि हमहूं कछु हैं और जोइ-सोइ कछु गाते हैं) अपने सम्पादकत्व , सह-सम्पादकत्व और सम्पादन-मण्डलत्व में छपे जितने भर विशेषांक हड़बड़ी में आस-पास दिखे, उनके पास लाकर ठेल दिए . उन्होंने गुरु-गंभीर भाव से मुआइना किया (इतने कम समय में पढते तो खाक) और तारीफ़नुमा कुछ कहा . पत्रिका के ‘आज का मीडिया’ अंक को देखकर कहा, “अरे! आप लोगों ने तो यह ‘हंस’ के विशेषांक से भी पहले, सन २००० में ही निकाल दिया था .” हमने यह सोचकर संतोष की सांस ली कि बाल-बाल बचे जो हमारा अंक पहले निकला,वरना आज़ बात कच्ची हो जाती और फ़ुरसतिया हमें पिछलग्गू घोषित किए बगैर नहीं रहते .
‘धर्म,आतंकवाद और आज़ादी’ पर केन्द्रित अंक में असगर अली इंज़ीनियर के लेख पर नज़र मार कर फ़ुरसतिया जी ने कहा कि ‘अच्छे विचारक हैं,अभी इनकी एक पुस्तक लाया हूं जो पढनी बाकी है’. उन्होंने हमारी एक कविता ‘सबसे बुरा दिन’ की भूरि-भूरि प्रशंसा की . हम बहुत खुशियाए-लजाए और लजाए-खुशियाए . और मारे शर्म के यह भी नहीं बता सके कि इस कविता को पढकर मुझे वरिष्ठ हिंदी कवि लीलाधर जगूड़ी और बीबीसी फ़ेम वरिष्ठ पत्रकार-प्रसारक-उद्घोषक राजनारायण बिसारिया ने चलाकर फोन किया बधाई देने के लिए . समय कम था इसलिए और-और ज़रूरी बातें कर लेने का प्रेशर भी था . मृत्युंजय द्वारा संपादित ‘हिंदी सिनेमा का सच’ और लक्ष्मण केडिया द्वारा सम्पादित ‘भवानीप्रसाद मिश्र के आयाम’ के अलावा उन्हें ‘२०४७ का भारत’ और ‘कविता इस समय’ अंक भी दिखाया . उन्होंने थोड़ी-बहुत नज़र मारकर बतरस का सिलसिला फिर शुरु कर दिया .
अब तक अनूप जी गौरी बिटिया द्वारा बनाई गई चाय (वह भी ठंडी) के नशे में तरंगित हो चुके थे . जीतू के हड़बड़ियापन और नाम-लिप्सा पर बारीक चुटकी ली और उनकी २४ कैरेट की भलमनसाहत को सराहा . लगे हाथों बीएचयू में अपने नेतागीरी के जमाने में अफ़लातून जी की लड़कियों के मध्य लोकप्रियता पर समुचित प्रकाश डाला . हमें इसमें रहस्योद्घाटन जैसा कुछ नहीं लगा . लड़कियों में लोकप्रिय हुए बिना कोई समाजवादी कैसे हो सकता है . यह तो उसकी बेसिक क्वालीफ़िकेशन है . जब अफ़लातून अब तक प्रमोद भाई की नज़र में चढ़ जाने लायक धांसू रंगीन कुर्ते पहनते हैं तो जवानी में क्या कहर ढाए होंगे, इसका अंदाज़ लगाया सकता है. उड़नतश्तरी की लोकप्रियता के कारण खोजे गए . मेरा भाई गज़ब का आसान लिखकर शिकार फ़ांसता है . ऊपर से सबके यहां टिप्पणी इतनी मीठी करता है कि किसी के ब्लॉग पर लगातार पांच-सात दिन टिप्पणियां कर दे तो उस पट्ठे को शर्तिया डाइबिटीज़ हो जाए .
इस बीच मैंने नारद पर राहुल के ब्लॉग को बैन करने का मुद्दा छेड दिया और अनूप भाई से इसे तुरत निपटाने का अनुरोध किया . यह भी कहा कि इस बैन से मेरा सैद्धांतिक विरोध है तथा नारद के चरित्र और भविष्य को ध्यान में रखते हुए इस बैन को हटा लेना चाहिए . अनूप जी ने कहा कि यह मामला बहुत साधारण था किंतु दो समूहों के बीच मूंछ की लड़ाई ने इसे जटिल बना दिया है . तथापि उन्होंने इसके शीघ्र हल होने की सम्भावना व्यक्त की .
इस बीच प्रमिला जी आ गईं . उनसे शुरुआती दुआ-सलाम के बाद फ़ुरसतिया जी सीधे करुण रस से भरे (करुण रस भुक्तभोगी के लिए,हास्य रस पाठक के लिए ) उस ‘बकरीपुराण’ में उल्लिखित-वर्णित घटना की तफ़तीश करने लगे . मामला नवोढ़ा द्वारा लिखे पहले प्रेमपत्र का था अतः अठारह साल पुरानी घटना-दुर्घटना को समुचित गरिमा प्रदान करते हुए प्रमिला ने पारंपरिक लज्जा-प्रदर्शन में गैर-पारम्परिक वाक्संयम का अनूठा और कौशलपूर्ण संयोग रचते हुए अपनी मुस्कराहट से सवालों को ‘डिफ़्लैक्ट’ कर दिया .
उधर बिटिया गौरी देवी ने ( यह देवी जान-बूझकर लिखा है,ताकि गौरी को मुझसे लड़ने-रिसियाने का एक और बहाना मिल सके. मुझे अब तक यह समझ में नहीं आया है कि ‘देवी’ मध्यनाम में बुरा क्या है ? ) यह कहकर मां-बाप पर निशाना साधा कि जब वह कोई अच्छा और तारीफ़ लायक काम करती है तो मां और पिताश्री दोनों ही आत्ममुग्ध होकर अलग-अलग यह घोषणा करते हैं कि यह मुझ पर गई है . और खुदा-न-खास्ता कोई टूट-फूट या गलती हो जाए तो दोनों यह आरोप एक-दूसरे पर लगाते दिखाई देते हैं . शुभंकर जी उर्फ़ छटंकी लाल साइकल चलाकर और देर तक शावर के नीचे नहाकर लौटे थे. कुछ अन्यमनस्क से प्रतीत हुए, फलस्वरूप उन्होंने बात-चीत में कोई विशेष रस नहीं लिया . वरना माता-पिता की एक-आध पोल-पट्टी और खुलती .
फ़ुरसतिया जी ने अपने मित्र इंद्र अवस्थी और उनके माध्यम से उनके मामा डॉ. प्रेमशंकर त्रिपाठी और कुमारसभा पुस्तकालय का ज़िक्र किया. हमने कहा भाई वे तो हमारे भी मित्र हैं . वैचारिक भिन्नता के बावजूद इस सुवक्ता से हमारी मित्रता है . वे उत्तर कोलकाता में रहते हैं और मैं दक्षिण कोलकाता में . किंतु बकलम प्रमोद सिंह हिंदी का पोखर बहुत छोटा है . इसलिए किसी लोकार्पण समारोह में,किसी कविगोष्ठी में,किसी प्रतियोगिता के निर्णायक मंडल के सदस्य के रूप में ,किसी टीवी कार्यक्रम के प्रतिभागी के रूप में मिलना हो ही जाता है . हमारे संस्थान में स्वर्णजयंती व्याख्यान देने के मेरे प्रस्ताव पर आचार्य विष्णुकांत शास्त्री को राजी करने में उनकी भी भूमिका थी . ‘काव्य का वाचिक सम्प्रेषण’ यानी कविता का पाठ कैसे किया जाय,इस विषय पर वह अद्भुत व्याख्यान था जिसे मेरे सहकर्मी आज भी याद करते हैं .
अनूप भाई का मन शिवकुमार मिश्र और मान्या से मिलने का था . पर मैं तब तक (और अब तक भी) उनसे सम्पर्क नहीं साध सका था . इसलिए मिलना संभव न हो पाया . बस यही वह जगह है जहां मैं तमाम मिलनसारिता के बावज़ूद अनूप जी से कच्चा पड़ जाता हूं .यदि अनूप कोलकाता में रहते और मैं कानपुर से मिलने आता तो यह हो नहीं सकता था कि मुझे मान्या और शिवकुमार मिश्र से बिना मिले लौटना पड़ता . अब मैं किससे शिकायत करूं कि भाई शिवकुमार मिश्र का पता ज्ञान जी से दरियाफ़्त किया था पर वे सुट्ट खींच गए . सोचा होगा वित्तीय सलाहकार हैं ,फ़ोकटिया राय मांगनेवाले कहीं उन्हें बेमतलब तंग न करने लगें .
चिट्ठाकार बिरादरी को लेकर कुछ भावी योजनाएं बनाईं गईं . कुछ तूमाल बांधे गए . जिन पर तब तक कुछ कहना नासमझी होगी जब तक कोई ठीक-ठीक ‘कंक्रीट’ रूपरेखा उभर कर सामने न आए .
खाना खाते हुए भी बात-चीत बदस्तूर जारी थी . हम एक-एक मिनट का सदुपयोग चाहते थे . इसी बीच एक बार लाइट ने लुका-छिपी खेली. रात घहराने लगी थी . अनूप जी को कोलकाता के उस उत्तरी किनारे दमदम जाना था . न चाहते हुए भी उठना पड़ा . हमने उनसे कहा कि आप दिन में आये होते तो आपको झील के किनारे घुमाने ले चलते . कई मील में फ़ैली बहुत बड़ी झील है हमारे घर के पास . इसे ढाकुरिया लेक या रवीन्द्र सरोवर के नाम से जानते हैं .
नीचे उतर कर बात-चीत का एक और दौर चला . चलते-चलाते मैंने पुनः अनूप जी से ‘बैन’ प्रकरण के ‘ऐमिकेबल’ हल का अनुरोध किया . अनूप जी ने पुनः आश्वासन दिया और कहा कि यह तो कोई मुद्दा ही नहीं है .
तीन-चार घंटे की बतरस के बावजूद मन नहीं भरा था . कितने ही ब्लॉगर-मित्र थे जिनके बारे में बात करने की हुड़क मन में थी . पर ड्राइवर थकी और याचना भरी नज़रों से हमें निहार रहा था . हमने फिर से एक-दूसरे के हाथ थामे . मुझसे कविताओं पर लिखने की गुजारिश करते हुए अनूप रथारूढ हुए .
इस तरह श्रीश्री १०८ अनूपाचार्य लौटते भए .
इधर लौट कर आया तो प्रमिला ने हड़काते हुए खबर ली कि पहले क्यों नहीं बताया . तुम्हारी लापरवाही से ऐन निर्जला एकादशी के दिन हाथ आया ‘बाभन’ बिना खीर खाए चंगुल से बच निकला .
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नोट : इस पोस्ट में स्माइली इतनी जगह लगना था कि समूची पोस्ट में स्माइली ही स्माइली दिखाई देते . दूसरी बात यह कि अभी मैंने स्माइली लगाना सीखा नहीं है . अतः मित्रों से अनुरोध है कि वे स्वयं यथास्थान स्माइली लगा कर पढने की कृपा करें .
प्रिय प्रियंकर जी; आपके वर्णन से एसा लगा कि मैं साक्षात अनूप जी से मिल रहा हूं आपका बतरस बड़ा रसपूर्ण रहा.
आप दिल्ली कब आ रहे हैं?
By: मैथिली on जुलाई 9, 2007
at 3:12 अपराह्न
बामन बिना खीर खाये छूट गये! पर लेख की मिठास तो मिष्टी दहि से भी ज्यादा है।
By: अतुल on जुलाई 9, 2007
at 4:20 अपराह्न
आप की मुलाकात का विवरण पढ़कर आनंद आया. दो कद्दावर नेता जब भी मिलते हैं तो गरीब जनता को शुकुन मिलता ही है…हम गरीबों को भी वैसा ही कुछ शुकुन मिला.आपसे मिलने की हमारी भी इच्छा है हांलाकि एक कद्दावर नेता जनता से मिलना पसंद नही करता फिर भी जनता का क्या ..ख्वाब देखने की आदत जाती कहां है..:-) आप दिल्ली कब आ रहे हैं ..?? अन्यथा हम तो अगले माह कोलकाता आ ही रहे हैं…मिलेंगे जरूर ..प्रमिला भाभी को अभी से बता दीजिये.
By: kakesh on जुलाई 9, 2007
at 4:21 अपराह्न
अच्छा लगा आपसी मुलाकात के इस विवरण को पढ़ कर !
By: मनीष on जुलाई 9, 2007
at 6:55 अपराह्न
बेहतरीन विवरण…
हालाँकि शुरुआत थोडी सी भारी लगी थी मुझे
शायद अनूप जी के असर में इतनी लम्बी पोस्ट लिख गये? 🙂
By: नितिन बागला on जुलाई 9, 2007
at 7:02 अपराह्न
फायर फाक्स पर लेख ठीक नही दिख रहा है (फैला हुआ है)
By: Nitin Bagla on जुलाई 9, 2007
at 7:06 अपराह्न
भाई खूब लिखा, बहुत आनन्द आया। मानों प्रत्यक्ष इस मुलाकात का साक्षी बन गया हूँ। खूब विस्तार और सम्यक उपमाओं से सुसज्जित यह लेख पढ़कर बंग-भूमि पर हुई ब्लॉगर का भली भाँति आनन्द लिया और कभी जादवपुर विश्वविद्यालय में बिताये गये कुछ समय का भी लुत्फ लिया।
By: राजीव on जुलाई 9, 2007
at 7:17 अपराह्न
वाह मजा आ गया विवरण पढ़कर, पहली कुछ लाइनें पढ़कर मैं खिसकने की सोच रहा था लेकिन फिर ऐसा शमां बंधा कि पूरा लेख पढ़कर ही दम लिया।
बहुत ही जीवंत और मजेदार विवरण, सभी जगह उचित स्माइली लगाकर पढ़ लिया है। 🙂
By: Shrish on जुलाई 9, 2007
at 10:48 अपराह्न
प्रियंकर जी आपने ढाकुरिया का नाम लेकर सारा कलकत्ता याद दिला दिया,आपका संस्थान शायद देखा हुआ है, ये IACS और IICB के पास वाला है अगर तो।
By: राम चन्द्र मिश्र on जुलाई 9, 2007
at 10:52 अपराह्न
वाह, बड़ा जीवंत चित्रण रहा. प्रथम भाग वाकई में डरा रहा था. फिर बाद में पता चला कि अनलिमिटेड स्माईली एलाउड है तो ठीक हो गया. आभार, आपने मुझे बातचीत में लाने योग्य समझा. खोज का नतीजा बता देते तो उसे बरकरार रखने में सहूलियत हो जाती. 🙂 सब आप लोगों का ही स्नेह है.
अच्छा लगा आपका मेहमाननवाजी का अंदाज. वैसे प्रैयंकर भाई, कलकत्ता हमने भी नहीं घूमा है. 🙂
By: समीर लाल on जुलाई 10, 2007
at 12:23 पूर्वाह्न
अच्छा लगी भेट वार्ता, अनूप जी की यात्रा मंगलमय हो।
आपको भी हार्दिक् बधाई की, इतनी अच्छे ढ़ग से वर्णन किया। धन्यवाद
By: PRAMENDRA PRATAP SINGH on जुलाई 10, 2007
at 1:32 पूर्वाह्न
दो आश्रय मिलें तो भेंट सरस ही होगी ।
नितिन की शिकायत दूर करें।पोस्ट सम्पादन पृष्ट में पूरा कथ्य चुन कर उसे बाँए-बाँध लें,फायर्फ़ॉक्स पर सही हो जाएगा।
अनहदनाद का नया थीम अच्छा लगा।क्या यहाँ यह पहली गद्य प्रविष्टी है?
By: afloo on जुलाई 10, 2007
at 1:36 पूर्वाह्न
पढ़ कर अच्छा लगा पर मैंने आपकी चिट्ठी लिनेक्स-फायरफॉक्स पर देखी। इसमें ठीक से पढ़ायी में नहीं आयी। लगता है कि आपने justify करके लिखी है। इसे left align करके लिखें तो अच्छा रहे
By: उन्मुक्त on जुलाई 10, 2007
at 1:46 पूर्वाह्न
बहुत खूब। मजे लेलेकर पढ़ा गया। खाली खाली ज्ञानजी वाली बात पर स्पष्टीकरण कि उन्होंने हमारी सलाह पर लिखना शुरू नहीं किया। वे तो स्वयं आये, लिखना शुरू किया और छा गये।
नारद पर राहुल के ब्लाग को बैन करने संबंधित विवाद के बारे में मेरी अभी भी स्पष्ट मान्यता है कि यह बिना बात के बढ़ता चला गया। यह नेट का आभासी माध्यम अगर दो ध्रुवों पर बैठे लोगों को मिलाता है तो एकदम पास बैठे लोगों के मन में न जाने कैसे-कैसे शक-संदेह पैदा कर देता है। ब्लाग संकलक जैसे नितान्त मशीनी माध्यम को अभय तिवारी जैसे समझदार लोग तक साम्प्रदायिक बता रहे हैं और अपनी बात के समर्थन में पोस्ट पर पोस्ट लिख रहे हैं। संजय बेंगाणी के बारे में न जाने कितने-कितने फ़तवे जारी हो रहे हैं। अफ़लातून जैसे सुधी लोग न जाने कौन-कौन से संदर्भों की पुरानी वार्तायें जमा करके यह सिद्ध कर रहे हैं कि नारद के लोगों को समूह की कोई चिंता नहीं है। जीतेंन्द्र में तमाम खामियां हैं वो हड़बड़िया है, एक आदमी की तरह नाम चाहता है लेकिन उसकी दिन-रात की मेहनत को नजर अन्दाज करके उसको गरियाना कैसे जायज है। संजय बेंगाणी से मैंने फोन पर बात की थी। उसने मुझसे कहा था- आप राहुल के ब्लाग पर लिखी नयी पोस्टें देख लें फिर आप जैसा ठीक समझें करें, मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी। मैंने देखा उसके लिये उसी तरह की भाषा इस्तेमाल की गयी है। मैं कैसे कह दूं कि उसके ब्लाग को बहाल कर दें! मैंने अभय तिवारी जी से पूछा था कि अगर इसी तरह की भाषा कल को किसी महिला ब्लागर के लिये इस्तेमाल की गई तब आपका क्या रुख रहेगा? मुझे नहीं लगता उन्होंने इसका कोई जवाब दिया है।
एक बहुत महत्वपूर्ण बात जो रह गयी थी मुझसे लिखने को उसकी तरफ़ आपने इशारा किया। हम सभी लोग कल्याणकारी राज्य की सुविधायें पाकर पले-बढ़े हैं। उसके प्रति नमकहरामी का रुख हमें शोभा नहीं देता।
आपसे मिलना एक अविस्मरणीय अनुभव रहा। गौरी से हमने कहा था- तुम ऐसे काम कर सको जिससे तुम्हारे मां-पिता में हमेशा इस बात की लड़ाई छिड़ी रहे कि तुम उनके जैसी हो। बल्कि ऐसे भी काम करे जिससे मां-पिता बेटी जैसा बनने के लिये ललकें। खाना, एक बार फिर कह दूं, बहुत लजीज बना था। पोस्ट शानदार है।
By: अनूप शुक्ल on जुलाई 10, 2007
at 1:47 पूर्वाह्न
आपने इतनी सुन्दरता के साथ सजीव वर्णन किया कि मेरी भी आप से मिलने की इच्छा बलवंत हो उठी है . सब कुछ तो समेट लिया इतनी सी ही पोस्ट मे .
यह समस्या तो फ़ायर फ़ाक्स पर कई ब्लाग मे मैने देखी है , लेकिन इसके लिये माजिला के addons IE Tab 1.3.3.20070528 को https://addons.mozilla.org/en-US/firefox/addon/1419 से डाऊनलॊड कर के इन्सटाल कर ले और जो भी साईट फ़ायर्फ़ाक्स मे ठीक से देखी न जा पा रही हो , उसको rt click कर के view page in IE tab पर किल्क करे , यह बाधा स्वयं ही दूर हो जायेगी और पेज फ़ायर्फ़ाक्स पर internet explorer tab मे खुल जायेगा.
By: प्रभात टन्डन on जुलाई 10, 2007
at 3:20 पूर्वाह्न
आशा अब आप स्वस्थतापूर्वक है.
प्रविष्टी पढ़ कर अच्छा लगा.
By: संजय बेंगाणी on जुलाई 10, 2007
at 4:02 पूर्वाह्न
मुलाकात का विवरण बहुत अच्छा लिखा आपने, अब आपसे और अनूपजी से मिलने की इच्छा है।:)
जब तक यह अनामदास, प्रमोद,ज्ञानदत्त और रवीश का चौगड्डा नहीं अवतरित हुआ था, डायलॉग डिलीवरी के थोड़े-बहुत नुक्स के बावज़ूद हमारे नारदाकाश के एकमात्र सुपरस्टार – नारद के अमिताभ बच्चन — वही थे .
अनूपजी का चिठ्ठाजगत में आज भी वही स्थान है- अमिताभ बच्चन का। जिसे कोई शाहरुख या कोई ऋत्विक हटा नहीं सकते। 🙂
By: सागर चन्द नाहर on जुलाई 10, 2007
at 5:04 पूर्वाह्न
इसको कहते हैं तिल का ताड़ बनाना.. झूलते झोंपड़े का ताज़महल और सुनहला पहाड़ बनाना! गौरी, देखो, तुम्हारे पापा का बुखार अभी तक उतरा नहीं है! प्रमिला जी, भवुकता में नहाया समूची दुनिया में आपको यही आदमी मिला?
By: प्रमोद सिंह on जुलाई 10, 2007
at 6:49 पूर्वाह्न
सृजनशील चेतना से संपन्न आप दोनों ऊर्जावान और सिद्ध चिट्ठाकारों के मिलन से चिट्ठाकारी का पूरा माहौल अनुप्राणित हुआ है। आप दोनों का मिलन एक तरह से जरूरी भी था। प्रत्यक्ष मुलाकात हुए बिना हम एक-दूसरे के व्यक्तित्व और लेखकीय मंतव्य को केवल लेखन के आधार पर पूरी तरह से नहीं समझ पाते। इस तरह की मुलाकातों से हम एक-दूसरे को ज्यादा बेहतर ढंग से समझ पाते हैं, और कई बार बहुत-सी गलतफहमियाँ भी दूर होती हैं।
इस मुलाकात के बारे में अनूप जी ने अपनी पोस्ट के माध्यम से जो शब्द-चित्र खींचा था उसे आपने अपनी पोस्ट के माध्यम से संपूर्ण बना दिया है।
By: सृजन शिल्पी on जुलाई 10, 2007
at 9:35 पूर्वाह्न
मेरे विषय में इतना अच्छा-अच्छा लिखने के लिये धन्यवाद. मैं जब हिन्दी ब्लॉगरी में टिकने – न टिकने के उहापोह में हूं, तो इस प्रकार का स्नेह सम्बोधन वास्तव में आकर्षित करता है. आपने मेरी हिन्दी को सही बताया है तो मानो मेरी पत्नी को सही बताया है. मेरे देशज शब्दों का शब्दकोष और थेसॉरस वही हैं – जिन्हे बिना कोट किये श्रेय मुझे मिल रहा है!
जिन सज्जनों की आपने बात की है – वे सभी निश्चय ही उत्कृष्ट लिखने वाले हैं पर वे (अनूप को छोड़) अपने किले में सुरक्षित बैठने वाले हैं. अत: सभी अच्छे लेखक हैं. अच्छे ब्लॉगर हैं – यह पता नहीं. समय ही तय करेगा.
आपका स्वयम का लेखन बहुत ऊर्जावान है और 🙂 किसी को भी चने के झाड़ पर चढ़ा सकता है.
मिला नहीं , पर श्रीमती प्रियंकर को नमस्ते और बिटिया को स्नेह. हां – खीर मुझे बहुत प्रिय है और डायबिटीज का कोई खतरा भी नहीं है. 🙂
By: ज्ञानदत्त पाण्डेय on जुलाई 10, 2007
at 10:22 पूर्वाह्न
प्रियंकर जी बहुत बढिया आत्मीय चित्रण किया आपने ! जितना रस लेलेकर आपने रचा है उतना ही रस लेलेकर हमने पढा है ! सबसे सही बात – अनूप जी हिंदी ब्लॉग जगत के सुपरस्टार हैं , बल्कि हम तो कहॆंगे फुरसतिया जी अपने आप में एक ब्लॉगिंग विश्वविद्यालय हैं!
By: नीलिमा on जुलाई 10, 2007
at 1:38 अपराह्न
प्रियंकर जी, पद्य के बाद गद्य में भी आपके लेखन का फ़िर से एक बार कायल हो गया मैं!!
By: sanjeet tripathi on जुलाई 10, 2007
at 1:40 अपराह्न
अच्छा लगा वंधु
कोई चारासाज होता कोई गम गुसार होता
ये न थी हमारी किस्मत कि ……..
By: बोधिसत्व on जुलाई 10, 2007
at 1:42 अपराह्न
अनूप जी
ये जगह तो नहीं है आप को जवाब देने की.. पर सवाल जहाँ उठाया जाय.. जवाब भी वहीं देना उचित है..
१) मैंने ब्लॉग संकलक जैसे तक्नीकी माध्यम को नहीं साम्प्रदायिक ठहराया..इस मामले पर मैंने अपनी पहली पोस्ट में लिखा..
“मेरा आकलन है कि नारद एक ऐसा मंच है.. जिस के संचालक जीतेन्द्र चौधरी, श्रीश शर्मा, संजय बेंगाणी साम्प्रदायिक सोच रखते हैं.. और माफ़ करें.. पर उनके साथ होने से और भीष्म की तरह असहाय(?) होने से अनूप जी ये आरोप मैं आप पर भी लगाता हूँ.. और ऐसे किसी समूह का हिस्सा होने से इंकार करता हूँ.. जहाँ गुजरात और मोदी की चर्चा करना ज़हर फैलाना हो.. और विरोध का स्वर रखने वाले एक मुसलमान साथी को दो टके का जवाब दे कर उसे बाहर निकालने की आतुरता महज एक प्रशासनिक रूखापन..”
इसमें आपको ब्लॉग संकलक को साम्प्रदायिक कहने की बात दिख रही है..? दूसरी पोस्ट मैंने ई-स्वामी द्वारा साम्प्रदायिकता के सवाल को डाइल्यूट करने की प्रयास के जवाब में लिखी..
“..अब तो पोल खुल गई कि आप की समझ भी उतनी ही संवेदनहीन है जितनी एक बहुसंख्यक समुदाय के किसी खाते पीते व्यक्ति की होती है.. क्या समस्या है.. क्यों गला फाड़ रहे हो? थोड़ी शांति रहने दो.. हर चीज़ में साम्प्रदायिकता साम्प्रदायिकता.. हद कर रखी है तुम लोगों ने.. छी.. कब तक इस तरह का ज़हर फैलाओगे..आदि आदि.. इस प्रकार के विचार आप के नारद समुदाय में कूट कूट के भरे हैं..”
इस में भी मैंआप को संकलक की तकनीक को साम्प्रदायिक कहता दिख रहा हूँ..? नहीं.. नारद नाम के संकलक को चलाने वालों को बहुसंख्यक संवेदनहीनता से ग्रस्त कह रहा हूँ.. आप को यहाँ का अमिताभ बच्चन घोषित किया जा रहा है.. आप से इतनी समझ तो अपेक्षित है कि ब्लॉग संकलक को साम्प्रदायिक कहना..और उसे चलाने वालों को साम्प्रदायिक कहना.. और किसी एक अन्य को बहुसंख्यक संवेदनहीनता से ग्रस्त कहना .. इन सब के बीच फ़र्क कर सके..
आप का महिला ब्लागर वाला सवाल एक काल्पनिक सवाल है.. आप उस की आड़ से अपने फ़ैसले को सही ठहराना क्यों चाहते हैं..? मैं तो राहुल पर आप के फ़ैसले पर कोई आपत्ति भी नहीं कर रहा.. जबकि मैंने खुद राहुल को पत्र लिख संजय बेंगाणी से माफ़ी माँगने के लिए कहा था.. जो उस ने किया भी.. खैर.. उसे छोड़िये.. सवाल तो मैंने भी किए थे.. आप से नहीं तो संजय बेंगाणी से.. मुझे जवाब दिए गए..? कोई बात नहीं.. वो न देने के लिए स्वतंत्र है..
और ये नमकहरामी वाली बात क्या है आप की.. किसे नमकहराम कह रहे हैं आप.. ? क्या इसे गाली समझा जाय.. ? क्या आप का मतलब ये है कि हम नारद का नमक खा कर नारद से गद्दारी कर रहे हैं?
ज़रा इसे साफ़ करें..
By: अभय तिवारी on जुलाई 10, 2007
at 3:38 अपराह्न
अनूप जी..
आप के पास मेरा ई मेल है.. आप को इस तरह के सवाल करने थे तो आप मुझसे पूछ सकते थे.. आप ई-स्वामी के सपने के जवाब पर प्रतिक्रिया भी दे सकते थे.. मगर आप ने प्रियंकर के द्वारा आप के प्रशस्ति गान के अवसर को इस बात को उठाने योग्य क्यों समझा.. ये मेरी समझ से परे है..
खैर मैंने ये प्रतिक्रिया छोड़ी है.. इसलिए नहीं कि मुझे नारद में कोई गहरी दिलचस्पी है.. बस इसलिये कि आप को जवाब न देना अनादर होगा.. इस लिए अपनी तरफ़ से सफ़ाई पेश की है.. और आप बात जो समझ नहीं आई उस की सफ़ाई माँगी है..
आशा है आप बड़प्पन बनाए रखेंगे..
By: अभय तिवारी on जुलाई 10, 2007
at 3:44 अपराह्न
अभयजी, मैंने अपनी टिप्पणी में लिखा था यह नेट का आभासी माध्यम अगर दो ध्रुवों पर बैठे लोगों को मिलाता है तो एकदम पास बैठे लोगों के मन में न जाने कैसे-कैसे शक-संदेह पैदा कर देता है। कुछ ऐसी ही बात होती गयी इस मसले पर। अब इस मसले पर और कुछ न कहना ही मुझे बेहतर लगता है।
प्रियंकरजी और साथियों ने जो अतिशयोक्ति पूर्ण तारीफ़ की मेरी उसके बावजूद मुझे अपनी स्थिति और औकात पता है। अपने को लेकर मुझे कोई भ्रम मुझे नहीं है। ‘नमकहरामी’ वाली बात का नारद और आपसे किसी तरह का संबंध नहीं है। वह प्रियंकर जी के साथ चर्चा के दौरान बात चली थी कि हम लोग जो लोग कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के तहत सस्ते में ऊंची तालीम हासिल कर गये तो हमको उसी धारणा का पोषण करते हुये सरकार की जनकल्याणकारी नीतियों का समर्थक होना चाहिये।
मुझे अफ़सोस है कि आपको मेरी बात से कष्ट हुआ। लेकिन इसी बहाने आपको मेरी संवेदनहीनता का अंदाज भी लग गया। यह आपके लिये निश्चित तौर पर उपलब्धि होनी चाहियेै कि मेरी असलियत आपको पता चल गयी।
प्रियंकरजी के प्रति मेरे मन में अफ़सोस है कि मेरी टिप्पणी के कारण उनकी इस पोस्ट पर ये अप्रिय टिप्पणियां हो गयीं।
By: अनूप शुक्ल on जुलाई 10, 2007
at 6:01 अपराह्न
पिछले कमेंट में मैंने प्रियंकर जी से माफ़ी वाली बात लिख कर मिटा दी थी.. मेरी आप के प्रति शिकायत कमज़ोर लगने लग पड़ी थी.. प्रियंकर जी से उम्मीद है कि वे मुझे माफ़ करेंगे.. मैं आया उनके लिखे पर प्रतिक्रिया करने था पर अनूप जी ने मुझे अरझा लिया.. उनके झोले में एक प्रतिक्रिया की आई कमी के लिए भी मैं उन्ही को जिम्मेदार ठहराता हूँ..
अनूप जी.. आप इस बारे में कुछ ना कहना चाहें.. मुझे एक दो बाते और कहनी हैं.. एक मनुष्य के रूप में.. एक लेखक के रूप में.. एक ब्लॉगर के रूप में आप आदरणीय हैं सम्माननीय हैं.. मगर कोई भी हर पक्ष अनुकरणीय नहीं होता.. आप भी नहीं हैं.. इस लिए इस मामले में आप की भूमिका की आलोचना की.. और दूसरे साथियों की भी..(
‘शाह आलम कैम्प की रूहें’ पर बेंगाणी बंधुऒ के कमेंट को आप क्या कहेंगे.. श्रीश शर्मा तक्नीक के अच्छे ज्ञानी हैं.. मैं उनके ज्ञान का सम्मान करता हूँ.. मगर इन मामलों पर उनके कमेंट भी ऐसे होते हैं कि मेरा आकलन ऐसा बना.. आप के बारे में ई-स्वामी के चिठ्ठे में लिखा है(आप से एक इंटरव्यू के दौरान) कि आप विवाद के मामलों में अलग थलग पड़ गए साथी का पक्ष लेते हैं.. क्या इस मामले में आप ऐसा कर पाये.. ? क्यों? नासिर जैसे साथी को जिस तरह से जवाब दिया गया साम्प्रदायिकता जैसे मसले पर .. और आप जो अलग थलग लोगों के साथ खड़े होने की छवि रखते हैं.. क्या किया आपने..? मौन साधा.. किसको बचाने के लिए..? जीतू और संजय को..? एक सत्ता पक्ष या प्रशासन, जो कहें.. और दूसरा गुजरात के हत्यारों को वैचारिक रूप से सही ठहराता.. आज तक आप ने नासिर से नहीं कहा कि उसके साथ ऐसा नहीं किया जाना चाहिये था.. क्यों? क्यों आप को संजय बेंगाणी का पक्ष ज़्यादा समझ आता है.. और नासिर का बिलकुल नहीं..
इस आभासी दुनिया के अमिताभ बच्चन से क्या इतनी उम्मीद की जा सकती है कि वो बीस बीस को ना मारे.. पर कम से कम एक अलग थलग पड़ जाने वाले साथी को बचा ले.. जैसा करने की उस ने छवि भी बना रखी है.. पर क्या आप ऐसा कर सके.. ?
By: अभय तिवारी on जुलाई 10, 2007
at 8:46 अपराह्न
अभयजी, इस मसले पर इतना कुछ कहा-सुना जा चुका कि अब और कुछ नहीं कहना ही श्रेयस्कर समझता हूंै। आपने मेरे बारे में जो धारणायें बनायी निश्चित तौर पर उनका आधार रहा होगा। मैं एक-एक वाक्य बीन-बटोरकर आपके सामने पेश करके अपने को पाक-साफ़ साबित करने की इच्छा नहीं बना पाया। मैंने पहले भी लिखा कि मुझे अपने बारे में कोई गलतफ़हमी नहीं है अपने बारे में। अभी भी नहीं। मैंने अपने बारे में कोई छवि नहीं बनाई। फिर भी अगर अपरोक्ष रूप में मेरी बनी किसी इमेज के अनुरूप आपको मुझ्से जो अपेक्षायें हो गयीं जिनको मैं पूरा नहीं कर सका तो उसके लिये मैं अफ़सोस जाहिर करता हूं। लेकिन यह एक मायने में अच्छा ही हुआ कि आपको मेरी असली सूरत दिख गयी। भ्रम जितनी जल्दी हो टूट जाने चाहिये। इसके लिये आपको बधाई भी कि आप मेरे बारे में सच्चाई जान गये। बिना मिले, इतनी जल्दी। 🙂 प्रियंकर जी से फिर अफ़सोस कि आपके ब्लाग का यह सवाल-जवाब में इस्तेमाल हो रहा है। 🙂
By: अनूप शुक्ल on जुलाई 11, 2007
at 1:51 पूर्वाह्न
..कानपुर मेरा भी घर है..आना होगा ही.. हो सकता है कोई रिश्तेदारी निकल आए.. फिर तो ये मतभेद और भ्रम टूट कर समाप्त हो ही जायेंगे..
By: अभय तिवारी on जुलाई 11, 2007
at 2:43 पूर्वाह्न
सुकुल जी और तिवारी जी, आप गुणी-ज्ञानीजनों से विनम्र निवेदन है कि अपना यह अंतरंग संवाद पड़ोस के किसी साईबर कैफ़े में जाकर फरियायें.. प्रियंकर की ऑलरेडी कुछ ज्यादा ही पक चुकी दाल को और खराब न करें.. हद है..
By: प्रमोद सिंह on जुलाई 11, 2007
at 6:23 पूर्वाह्न
[…] . हम रूमानी हुए . रूमान की तरंग में कुछ लिख मारा . पढ़कर कुछ मित्र हमसे भी ज्यादा […]
By: तिल का ताड़, झूलता झोपड़ा और सुनहला पहाड़ « अनहद नाद on जुलाई 12, 2007
at 8:42 पूर्वाह्न
[…] आपको आये दिन कोई न कोई टोंकता रहेगा- फायर-फ़ाक्स में नहीं दिख रहा, ओपेरा में नहीं खुलता, लेफ़्ट एलाइन करो, […]
By: फुरसतिया » इंक-ब्लागिंग के कुछ फुटकर फ़ायदे on जुलाई 18, 2007
at 4:12 अपराह्न
Priyankar ji,
Anoop jee ki Kolkata yatra ke baare mein parhkar bahut khush hua….
Main late-lateef aadmi hoon.So aapkee post bhee aaj hi dekha.Post dekh kar hi ichchha hui ki aaj hee kisi tarah mil paata to kitna achchha hota. Ab to aapse milkar hi baatein hongi.
By: Shiv Kumar Mishra on जुलाई 19, 2007
at 1:17 अपराह्न
मिसिरजी की मुलाकाता प्रियंकरजी से हो चुकी होगी। विवरण् प्र्स्तुत् किये जायें। 🙂
By: अनूप शुक्ल on जुलाई 22, 2007
at 12:55 अपराह्न
मिसिर जी महाराज से मुलाकात हो गई है . धीरज धरिए , विवरण ज़रूर दिया जाएगा .
By: प्रियंकर on जुलाई 24, 2007
at 11:57 पूर्वाह्न
[…] ब्लागर की पोस्ट् पर् या उसकी टिप्पणी पर उससे इत्तफ़ाक न रखते हुये कोई बचकानी […]
By: फुरसतिया » टिप्पणी न कर पाने के कुछ मासूम बहाने on अक्टूबर 2, 2007
at 3:52 पूर्वाह्न
[…] प्रियंकर कहेंगे कि अफसर महोदय को तगड़ा हाथ मारता सेठ या कॉरपोरेट जगत का सीईओ नहीं नजर आता. क्या बतायें. प्रियंकर जी, उनपर लिखने के लिये तो पूरी समाजवादी परिषद, अजदक जी की विद्वत मण्डली और फुटकर ब्लॉगर हैं ही. इस मीक को तो कोई नहीं पकड़ता! […]
By: मीक, लल्लू, चिरकुट और क्या? | मानसिक हलचल on सितम्बर 24, 2011
at 12:30 अपराह्न