अमिताभ गुप्त की एक बांग्ला कविता
शिक्षक महोदय
मेरे इस विश्लेषण को आप क्षमा करें
एक रोज़ भाषा का प्रयोग था
आश्विन के आसमान की तरह
उसके बाद, क्षमा करना
शिथिल फाल्गुन से कृष्णचूड़ा की तरह
झड़ गये हैं तीन दशक
मेरा यौवन बह गया
क्लास रूम से बरामदे के बीच
मेरी प्रौढता ने झुक कर
उस टूटे चॉक के टुकड़े को उठा लिया
संस्कारसिक्त आंखों से देखता रहा किताब
हाज़िरी का खाता और कलम की भंगिमा
क्षमा करना यदि आज़ भी
फागुन की आसन्न हवाओं में
मैं याद रखूं एक व्याकरणविहीन कविता
पूरे विश्लेषण के आदि से अंत तक यदि
सत्तर के दशक से आज भी चली आए एक कविता
गूंगी एकाकी टूटी-फूटी ।
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( अनुवाद : सुमना मजूमदार; पुनरीक्षण : प्रियंकर )
प्रियंकर् जी वैसे तो मै चिट्ठास्वामी के लिये आप को पढता था पर अब रोज आपकी कविताओ को दैनिक खुराक् मे शामिल कर लिया है..
By: arun on जुलाई 26, 2007
at 5:51 पूर्वाह्न
सही है। बड़ा कठिन जीवन है अध्यापक का।मेरा यौवन बह गया
क्लास रूम से बरामदे के बीच
मेरी प्रौढता ने झुक कर
उस टूटे चॉक के टुकड़े को उठा लिया
संस्कारसिक्त आंखों से देखता रहा किताब
हाज़िरी का खाता और कलम की भंगिमा
By: अनूप शुक्ल on जुलाई 26, 2007
at 6:57 पूर्वाह्न
@अरुण : कोशिश करूंगा कि आपको स्वादिष्ट और पौष्टिक खुराक मिले .
@अनूप शुक्ल : सहमत हूं . अध्यापक उस पुल की तरह है जिसके नीचे कितना पानी बहता जाता है और जहां से गुज़र कर कितने लोग मंज़िल पाते हैं .
By: प्रियंकर on अगस्त 1, 2007
at 5:34 पूर्वाह्न