कभी पाना मुझे
तुम अभी आग ही आग
मैं बुझता चिराग
हवा से भी अधिक अस्थिर हाथों से
पकड़ता एक किरण का स्पन्द
पानी पर लिखता एक छंद
बनाता एक आभा-चित्र
और डूब जाता अतल में
एक सीपी में बंद
कभी पाना मुझे
सदियों बाद
दो गोलार्धों के बीच
झूमते एक मोती में ।
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( समकालीन सृजन के ‘कविता इस समय‘ अंक से साभार )
अतीव सुन्दर ! धन्यवाद
By: अफ़लातून on जुलाई 27, 2007
at 6:17 पूर्वाह्न
खुबसूरत्
By: arun on जुलाई 27, 2007
at 6:31 पूर्वाह्न
बहुत खूबसूरत है
By: rajni,bhargava on जुलाई 27, 2007
at 12:00 अपराह्न
बहुत सुन्दर.वाह!!
By: समीर लाल on जुलाई 27, 2007
at 2:39 अपराह्न
सुंदर!!
By: Beji on जुलाई 27, 2007
at 6:54 अपराह्न
कुंवर जी मेरे पसंद के एक कवि हैं। उन्हे पढ़ना सदा अच्छा लगता है
By: बोधिसत्व on जुलाई 28, 2007
at 1:04 अपराह्न