एकालाप
क्या नष्ट किया जा रहा है
यह दृश्य है जो खत्म हो रहा है
या मेरी नज़र
ये मेरी आवाज़ खत्म हो रही है
या गूंज पैदा करने वाले दबाव
आत्मजगत मिट रहा है या वस्तुजगत
कौन देख सकता है भला इस
मक्खी की भनभनाहट
इसकी बेचैन उड़ान
कौन तड़प सकता है
संवाद के लिए और उसके
बनने तक कौन कर सकता है
एकालाप ।
********
( समकालीन सृजन के ‘कविता इस समय‘ अंक से साभार )
Thanks for writing such gerat thoughts “Ekaalap”
By: Brij on जुलाई 31, 2007
at 8:36 पूर्वाह्न