दोना पावला की एक सांझ का अकेलापन
सागर
असीम है
अगाध है
मन को
भाता है
अपरिचय का सागर
दारुण है
दाहक है
मन अकुलाता है
कोई स्पर्श नहीं
सांत्वना का
कंधे पर नहीं
कोई विश्वासी हाथ
परिचय की नहीं
कोई स्निग्धता
नहीं कोई
स्नेही स्वजन साथ
एकाकीपन का
साथी है तो सागर —
हरहराता हुआ
आता है मेरे पास
कराता है
निकटता का अहसास
पूछता है
मेरे छोटे सुख
पूछता है
मेरे दारुण दु:ख
मेरी ही भाषा में
एकाएक
जी भर आता है
सागर
आंखों में लहराता है ।
……..
सागर की अथाह जलराशि ,उससे उत्पन्न निस्सारता की भावना
एकाकीपन को विस्तारित करती है । ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगी –
एकाएक
जी भर आता है
सागर
आंखों में लहराता है ।
By: anuradha on अगस्त 1, 2007
at 8:28 पूर्वाह्न
प्रियंकरजी , अद्भुत !हार्दिक बधाई।
By: afloo on अगस्त 1, 2007
at 9:09 पूर्वाह्न
सुन्दर.. संगीतमय..
By: अभय तिवारी on अगस्त 1, 2007
at 10:05 पूर्वाह्न
अच्छा है प्रभु अच्छा है। यह हुई न बात
By: बोधिसत्व on अगस्त 1, 2007
at 11:14 पूर्वाह्न
bahut badhiya…. ise padh kar mujhe apna ekaki honeymoon yaad aa gaya… jab mai akela dona paula me baitha tha aur Ruchi Noida me 🙂
By: Aseem on अगस्त 1, 2007
at 12:16 अपराह्न
बहुत सुन्दर, जाने क्यों ये कविता अपनी अपनी सी लग रही है। ये कविता एकदम मेरे ऊपर फिट हो रही है, कैसे? सुनो….
जब मै कुवैत मे नया नया आया था, फैमिली तब इन्डिया मे थी, अक्सर सांझ ढले, समुन्दर किनारे चला जाता था। और सागर की अठखेलिया करती हुई लहरों मे अपनो के अक्स उभरते हुए देखता था। आने वाल हर लहर लगता था मेरे देश का कोई सन्देशा लाई है, फिर अचानक जब वो लहर वापस लौट जाती तो दिल बैठ जाता, लेकिन फिर अगले ही पल दूसरी लहर आती और ये सिलसिला चलता रहता। अपना जीवन भी तो कुछ ऐसा ही, समुन्दर की लहरों जैसा…..
By: जीतू on अगस्त 1, 2007
at 2:42 अपराह्न
सागर के सामने खड़े हैं.. जबकि हमारे आगे यहां नदी-नाला तक नहीं है.. और फिर भी दुखी हो रहे हैं?
By: pramos on अगस्त 1, 2007
at 2:54 अपराह्न
“एकाएक
जी भर आता है
सागर
आंखों में लहराता है ।”
सच, अनुभूति के लिये सागर थोड़े चाहिये. आंखें बहुत हैं. “तुम तो समन्दर की बात करते हो, लोग आंखों में ड़ूब जाते हैं.”
By: ज्ञानदत्त पाण्डेय on अगस्त 2, 2007
at 12:10 अपराह्न