प्रियंकर की एक कविता
संग-साथ
आज मन में
एक मंथन सा
चल रहा है
और तुमसे
मिलने को यह मन
मचल रहा है
बार-बार सोचता हूं
आदमी को आखिर
अकेले क्यों रहना चाहिए
सुख हो या दु:ख
एकाकी क्यों सहना चाहिए
जीवन की धारा में
अकेले क्यों बहना चाहिए
वह भी साथ-साथ
रहने की शपथ लेने के बाद
बहुत से अंधेरे-उजाले
एक-साथ सहने के बाद
अत:
आरंभिक अनुराग की
आवेगमयी स्मृति
को मान दो
और शीघ्र आओ
मेरे आतुर हाथों
में अपना गर्म हाथ लाओ
समय की कसौटी पर कसा
संग-साथ का
वही पुराना गीत गाओ ।
……..
आपकी यह रचना पसंद आई।
By: रिपुदमन on अगस्त 3, 2007
at 2:41 अपराह्न
अच्छा है भाई
ये सब कविताएँ कहीं संकलित है या नहीं। अगर नहीं है तो हो जाना चाहिए
By: बोधिसत्व on अगस्त 3, 2007
at 3:45 अपराह्न
बहुत सुन्दर । बोधिसत्व की माँग का समर्थन । यह काम न हुआ हो , तब हो जाना चाहिए।
By: अफ़लातून on अगस्त 3, 2007
at 4:31 अपराह्न
आपका blog अच्छा है
मे भी ऐसा blog शुरू करना चाहता हू
आप कोंसी software उपयोग किया
मुजको http://www.quillpad.in/hindi अच्छा लगा
आप english मे करेगा तो hindi मे लिपि आएगी
By: teja on अगस्त 3, 2007
at 4:58 अपराह्न
अच्छी कविता है।
By: अनूप शुक्ल on अगस्त 3, 2007
at 5:18 अपराह्न
सही है.
By: pramos on अगस्त 3, 2007
at 5:39 अपराह्न
बेहतरीन रचना, बधाई.
By: समीर लाल on अगस्त 3, 2007
at 5:57 अपराह्न
रागमय..
By: अभय तिवारी on अगस्त 4, 2007
at 1:36 पूर्वाह्न
बहुत बढिया रचना है।बधाई।
By: paramjitbali on अगस्त 4, 2007
at 6:59 पूर्वाह्न
बहुत सुंदर ….बधाई
By: reetesh gupta on अगस्त 5, 2007
at 12:08 अपराह्न