भवानी भाई की एक कविता
उठो
बुरी बात है
चुप मसान में बैठे-बैठे
दुःख सोचना , दर्द सोचना !
शक्तिहीन कमज़ोर तुच्छ को
हाज़िर नाज़िर रखकर
सपने बुरे देखना !
टूटी हुई बीन को लिपटाकर छाती से
राग उदासी के अलापना !
बुरी बात है !
उठो , पांव रक्खो रकाब पर
जंगल-जंगल नद्दी-नाले कूद-फांद कर
धरती रौंदो !
जैसे भादों की रातों में बिजली कौंधे ,
ऐसे कौंधो ।
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भवानी भाई की यह कविता पढ़ाने के लिए आपको धन्यवाद.
By: Isht Deo Sankrityaayan on अगस्त 6, 2007
at 11:19 पूर्वाह्न
वाह, भवानी दादा का एकदम जबर्दस्त फैन रहा हूं । विविध भारती में तो उनकी रिकॉर्डिग भी है—सतपुड़ा के घने जंगल और जी हां मैं गीत बेचता हूं, पढ़ी है उन्होंने, बहुत शुक्रिया इस कविता को पढ़वाने के लिए
भवानी दादा की एक कविता कॉलेज के दिनों में मैंने अपनी टेबल के सामने दीवार पर लगा रखी थी–
ज्यादातर चीजें मुझे तब सुंदर दिखी हैं जब मैंने उन्हें बेवक्त देखा है ।
यानी देखा है उन्हें ऐसे वक्त जब लोग उनको नहीं देखते या नहीं देख पाते जैसे सूरज देखा मैंने
छह बजने को दस बारह मिनिट थे तब यानी ठीक निकला नहीं था वह तैयारी में था क्षितिज की अपनी देहरी पर पांव धरे की उठा चुका था पांव, पर धर नहीं पाया था आज जाना मैंने सूरज को उठाकर पांव देहरी पर धरने में कोई दस मि0 लग जाते हैं
और इतने समय में
बदल जाता है वातावरण इतना कि आलसी से आलसी पंछी जाग जाते हैं
बदल जाती है पूरबी क्षितिज से लेकर दुनिया पश्चिमी क्षितिज तक की
देखता रहा मैं आसपास के पेड़
आसपास के पेड़ों पर जागे और जागते पंछी
घुलना धीरे धीरे आसमान का पीली और लाल
और फिर सफेद होती आभा से
फिर दिखा सौम्य और प्रसन्न सूरज और सूरज को मैंने प्राय: नमस्कार किया उसने ठीक ढंग से लिया मेरा नमस्कार
दिन भर नहीं होने दिया उसने मुझे उदास
By: yunus on अगस्त 6, 2007
at 11:29 पूर्वाह्न
अच्छा लगा पढ़कर ….
By: reetesh gupta on अगस्त 6, 2007
at 12:46 अपराह्न
बुरी बात है !
उठो , पांव रक्खो रकाब पर
जंगल-जंगल नद्दी-नाले कूद-फांद कर
धरती रौंदो !
जैसे भादों की रातों में बिजली कौंधे ,
ऐसे कौंधो ।
बेहतरीन… प्रेरणास्पद..
By: नीरज दीवान on अगस्त 6, 2007
at 4:14 अपराह्न