Posted by: PRIYANKAR | अगस्त 10, 2007

अशोक वाजपेयी की एक कविता

अशोक वाजपेयी

विश्वास करना चाहता हूं

 

विश्वास करना चाहता हूं कि

जब प्रेम में अपनी पराजय पर

कविता के निपट एकांत में विलाप करता हूं

तो किसी वृक्ष पर नए उगे किसलयों में सिहरन होती है

बुरा लगता है किसी चिड़िया को दृश्य का फिर भी इतना हरा-भरा होना

किसी नक्षत्र की गति पल भर को धीमी पड़ती है अंतरिक्ष में

पृथ्वी की किसी अदृश्य शिरा में बह रहा लावा थोड़ा बुझता है

सदियों के पार फैले पुरखे एक-दूसरे को ढाढ़स बंधाते हैं

देवताओं के आंसू असमय हुई वर्षा में झरते हैं

मैं रोता हूं

तो पूरे ब्रह्मांड में

झंकृत होता है दुख का एक वृंदवादन —

पराजय और दुख में मुझे अकेला नहीं छोड़ देता संसार

 

दुख घिरता है ऐसे

जैसे वही अब देह हो जिसमें रहना और मरना है

जैसे होने का वही असली रंग है

जो अब जाकर उभरा है

 

विश्वास करना चाहता हूं कि

जब मैं विषाद के लंबे-पथरीले गलियारे में डगमग

कहीं जाने का रास्ता खोज रहा होता हूं

तो जो रोशनी आगे दिखती है दुख की है

जिस झरोखे से कोई हाथ आगे जाने की दिशा बताता है वह दुख का है

और जिस घर में पहुंचकर,जिसके ओसारे में सुस्ताकर,आगे चलने की हिम्मत बंधेगी

वह दुख का ठिकाना है

 

विश्वास करना चाहता हूं कि

जैसे खिलखिलाहट का दूसरा नाम बच्चे और फूल हैं

या उम्मीद का दूसरा नाम कविता

वैसे ही प्रेम का दूसरा नाम दुख है ।

 

**********

 

( समकालीन सृजन   के ‘कविता इस समय’ अंक से साभार )

 


Responses

  1. बढि़या भाव

  2. अशोक जी को यहाँ पढ़ कर अच्छा लगा। अच्छी कविता है।
    आज यह सोच कर अजीब लगता है कि कभी मैं अशोक जी का सह कर्मी हुआ करता था।

  3. आप की कविता ‘विश्वास करना चाहता हूं’भड़िया हे
    अच्छा आप ए बताव की आप कोंसी software उपयोग किया
    मुजको http://www.quillpad.in/hindi अच्छा लगा
    आप english मे करेगा तो hindi मे लिपि आएगी

  4. अरे, बुरा न माने पण्डिज्जी, प्रेम को कोई नाम दे दें, सफलता/असफलता/आशा/निराशा/प्रसन्नता/रुदन/… कुछ भी. जो कविता बनेगी वह बहुत अच्छी होगी! और चाहे अशोक वाजपेयी की हो या प्रियंकर की!


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