बसंत त्रिपाठी की एक कविता
मैं एक ठहरे हुए पल में जी रहा हूं
मैं एक ठहरे हुए पल में जी रहा हूं
कवि हूं
खादी पहनता हूं, बहस करता हूं
फ़िल्में देखता हूं, शराब पीता हूं
बचे समय में अपनी कारगुजारियों को
सही साबित करने की कवायद करता हूं
मैं एक ठहरे हुए पल में जी रहा हूं
यद्यपि कुछ भी ठहरा हुआ नहीं
तेजी से घूम रहे लहू के आभासी ठहराव जैसा है यह
फूल प्यार बच्चे और चिड़िया
चिट्ठियां और कविताएं
अपने समय की समस्त बुरी घटनाएं और दुश्चिंताएं
रक्त के भीतर बड़बड़ाता कोई पुराना संस्कार
सब कुछ मिलकर इतना एक हो गया है
कि डरावने सपने आते हैं
मैं डरावने सपने देखते हुए
अपना मकान बनवाना स्थगित करता हूं
बौखलाहट और नकार अब बीते दिनों की चीज़ है
सब कुछ पर केवल हामी है
कुछ न करने के दाखिल प्रतिज्ञा-पत्रों के बीच
कहीं मैं भी हूं
बगदाद और बसरा की सड़कों पर
कैमरे की आंख से बचता हुआ
भारत में आम की लकड़ी की मेज पर झुका हुआ
कर्ज़ की किस्तों के भयंकर चक्रवात में घिरा हुआ
अपने समय का एक मामूली-सा कवि यानी मैं
शांत मुद्रा में अशांत समय की कविताएं लिखता हूं
कविता लिखने के सबसे ज़रूरी समय में
कविता लिखते हुए
मैं इतना अकेला और हताश हूं
कि कहता हूं — मैं एक ठहरे हुए पल में जी रहा हूं ।
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( समकालीन सृजन के ‘कविता इस समय’ अंक से साभार )
मैं एक ठहरे हुए पल में जी रहा हूं ।
-वाह, बहुत सुन्दर भावपूर्ण!!
By: समीर लाल on अगस्त 13, 2007
at 3:30 अपराह्न
यह बड़ा ऑफेंसिव लगेगा – पर ये बसंत त्रिपाठी कौन हैं जो हमारी बात कह रहे हैं? ऑफकोर्स, शब्द उनके हैं पर बात तो हमारी है.
By: ज्ञानदत्त पाण्डेय on अगस्त 13, 2007
at 3:56 अपराह्न
बसन्तजी तक हार्दिक शुक्रिया पहुँचाएँ।प्रियंकर भाई ,आप ऐसी कविताओं को प्रस्तुत कर ऐतिहासिक काम कर रहे हैं ।
By: afloo on अगस्त 13, 2007
at 4:52 अपराह्न
बहुत खूब!!
By: Beji on अगस्त 13, 2007
at 5:56 अपराह्न
बसंत त्रिपाठी जी की कविता बहुत अच्छी लगी । इतनी अच्छी कविता पढ़वाने के लिए धन्यवाद ।
घुघूती बासूती
By: ghughutibasuti on अगस्त 13, 2007
at 6:59 अपराह्न