॥१॥
विडंबना
अपने बैकुंठ की रक्षा में
हमारे इर्द-गिर्द
रोज़-रोज़
रचते हुए भी एक नया नर्क
तुम हमारे हो प्रभु !
॥२॥
उगो
तुम्हारे इन्तज़ार में
अंधी हो रही हैं दिशाएं
काले भंवर में
चक्कर काट रही है पृथ्वी
उगो
कि झूमते दिखें
खेत-खेत नये अंकुर
उगो कि ताल-ताल खिलें
सहस्र-दल नेह-कमल
उगो कि तुम
दिशाओं की आंख हो सूरज !
उगो
कि तुम
पृथ्वी का प्यार हो सूरज !
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कवि परिचय : ग्राम इमिलिया(भटनी),जिला देवरिया(उ.प्र.) में सन १९३९ में जन्म, बुद्ध डिग्री कॉलेज,कुशीनगर से स्नातक, अंबिका हिंदी हाई स्कूल,शिवपुर(हावड़ा) में १९६५ से २००२ तक अध्यापन . मानिक बच्छावत और छविनाथ मिश्र के साथ कोलकाता महानगर के वरिष्ठतम कवियों में से एक . बेहद प्यारे इंसान . १९५७ में पहली पुस्तक ‘विद्रोह’ शीर्षक से एक नाटक . १९६२ से २००० के बीच ग्यारह काव्य संकलन . प्रस्तुत कविता उनके काव्य संकलन ‘खंडहर होते शहर के अंधेरे में’ से ली गई है . ‘विसंगतियों के बीच’, ‘धूप के पंख’, ‘वाल्मीकि की चिन्ता’, ‘चौराहे पर कृष्ण’ तथा ‘ध्रुवदेव मिश्र पाषाण की कविताएं’ उनके अन्य काव्य संग्रह हैं .
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कवि का फोटो इरफ़ान के ब्लॉग टूटी हुई बिखरी हुई से साभार
अति सुंदर …धन्यवाद
By: reetesh gupta on अगस्त 22, 2007
at 7:24 अपराह्न
ईश्वर न स्वर्ग रचता है न नर्क. वह रचता है बन्दे – जो स्वर्ग या नर्क बना डालते हैं.
एक ही जगह जब हम सोच कर उठते हैं – तो स्वर्ग या नर्क बना चुकते हैं – बिना एक फूल को सजाये या मसले!
By: ज्ञानदत्त पाण्डेय on अगस्त 22, 2007
at 7:31 अपराह्न
bahut achchhii kavitaaen hain. inhe padhane ke lie dhanyavaad.
By: Isht Deo Sankrityaayan on अगस्त 24, 2007
at 3:46 अपराह्न