Posted by: PRIYANKAR | अगस्त 22, 2007

ध्रुवदेव मिश्र ‘पाषाण’ की दो कविताएं


ध्रुवदेव मिश्र ‘पाषाण’

 

॥१॥ 

विडंबना 

 

अपने बैकुंठ की रक्षा में

हमारे इर्द-गिर्द

रोज़-रोज़

रचते हुए भी एक नया नर्क

तुम हमारे हो प्रभु !

 

॥२॥

उगो

 

तुम्हारे इन्तज़ार में

अंधी हो रही हैं दिशाएं

काले भंवर में

चक्कर काट रही है पृथ्वी

 

उगो

कि झूमते दिखें

खेत-खेत नये अंकुर

 

उगो कि ताल-ताल खिलें

सहस्र-दल नेह-कमल

 

उगो कि तुम

दिशाओं की आंख हो सूरज !

 

उगो

कि तुम

पृथ्वी का प्यार हो सूरज !

 

*********

कवि परिचय : ग्राम इमिलिया(भटनी),जिला देवरिया(उ.प्र.) में सन १९३९ में जन्म, बुद्ध डिग्री कॉलेज,कुशीनगर से स्नातक, अंबिका हिंदी हाई स्कूल,शिवपुर(हावड़ा) में १९६५ से २००२ तक अध्यापन . मानिक बच्छावत और छविनाथ मिश्र के साथ कोलकाता महानगर के वरिष्ठतम कवियों में से एक . बेहद प्यारे इंसान . १९५७ में पहली पुस्तक ‘विद्रोह’ शीर्षक से एक नाटक . १९६२ से २००० के बीच ग्यारह काव्य संकलन . प्रस्तुत कविता उनके काव्य संकलन ‘खंडहर होते शहर के अंधेरे में’ से ली गई है . ‘विसंगतियों के बीच’, ‘धूप के पंख’, ‘वाल्मीकि की चिन्ता’, ‘चौराहे पर कृष्ण’ तथा ‘ध्रुवदेव मिश्र पाषाण की कविताएं’ उनके अन्य काव्य संग्रह हैं .

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कवि का फोटो इरफ़ान के ब्लॉग टूटी हुई बिखरी हुई से साभार

 


Responses

  1. अति सुंदर …धन्यवाद

  2. ईश्वर न स्वर्ग रचता है न नर्क. वह रचता है बन्दे – जो स्वर्ग या नर्क बना डालते हैं.
    एक ही जगह जब हम सोच कर उठते हैं – तो स्वर्ग या नर्क बना चुकते हैं – बिना एक फूल को सजाये या मसले!

  3. bahut achchhii kavitaaen hain. inhe padhane ke lie dhanyavaad.


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