भवानी भाई की एक कविता
समयगंधा
तुमसे मिलकर
ऐसा लगा जैसे
कोई पुरानी और प्रिय किताब
एकाएक फिर हाथ लग गई हो
या फिर पहुंच गया हूं मैं
किसी पुराने ग्रंथागार में
समय की खुशबू
प्राणों में भर गई
उतर आया भीतर
अतीत का चेहरा
बदल गया वर्तमान
शायद भविष्य भी ।
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भवानी प्रसाद मिश्र जी के अहसास से पूरी सहमति रखता हूं.
एक किताब जितनी प्रिय होती है
उसका अहसास वही कर सकता है,
जिसकी किताब खोती है.
By: ज्ञानदत्त पाण्डेय on अगस्त 30, 2007
at 4:09 अपराह्न
बहुत सुंदर.
देखिये-भविष्य पर फिर भी प्रश्न चिन्ह-शायद!!
वाह.
By: समीर लाल on अगस्त 30, 2007
at 11:49 अपराह्न
क्या बात है । अदभुत
By: yunus on अगस्त 31, 2007
at 4:59 पूर्वाह्न