लीलाधर जगूड़ी की एक कविता
प्रश्न
धर्म में भगवान होते हैं
या भगवानों के भी अपने कुछ धर्म ?
क्यों मरना पड़ता है
क्यों जन्म लेना पड़ता है भगवान को भी ?
क्या जड़ ही दीर्घायु होते हैं
अपने को और अधिक गुलाम बनाने के लिए
भगवान ही हमारा सर्वोच्च मालिक क्यों हो ?
जबकि जन्म हमने लिया,मरना हमें है
क्या हमारी समस्याएं ही उसके होने का आधार हैं ?
या मनुष्यों की तरह भगवान को भी वैविध्य पसंद है ?
अगर ऐसा है तो भगवान !
तेरा मनुष्य होना बहुत पसंद आया मुझे ।
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( काव्य संकलन ‘ईश्वर की अध्यक्षता में’ से साभार )
प्रियंकर भाई
आपको नहीं लगता कि कविता बिचारों में कहीं गुम गई है।
By: बोधिसत्व on सितम्बर 10, 2007
at 3:56 अपराह्न
“अगर ऐसा है तो भगवान !
तेरा मनुष्य होना बहुत पसंद आया मुझे ।”
क्या मनुष्य को ऐसे भगवान की जरूरत है जो उसके समान ही नश्वर है ??
— शास्त्री जे सी फिलिप
मेरा स्वप्न: सन 2010 तक 50,000 हिन्दी चिट्ठाकार एवं,
2020 में 50 लाख, एवं 2025 मे एक करोड हिन्दी चिट्ठाकार!!
By: शास्त्री जे सी फिलिप् on सितम्बर 10, 2007
at 5:14 अपराह्न
यह कविता टिप्पणी में नहीं, बहस में ही निपट सकती है.
By: Gyandutt Pandey on सितम्बर 10, 2007
at 5:55 अपराह्न
सही कह रहे हैं आप।
By: परमजीत बाली on सितम्बर 10, 2007
at 6:34 अपराह्न