आदमकद
मेरी कविता का
विषय है महानगर का
एक आदमकद व्यक्तित्व
जिसके भीतर जिन्दा हैं
खेत-खलिहान-चौपाल
एक पुश्तैनी घर और चौबारा
यानी अजनबी चेहरों की भीड़ नहीं
समस्याओं से जूझता गांव सारा
उसके अन्दर बहती है स्नेह की गंगा
वह आस्थाओं का विशाल बरगद है
कि उसकी छाया तले
हर व्यक्ति निरापद है
शहर के आवरण वाले लिफाफों में
वह अकेला पोस्टकार्ड है
जिसे आप बेखटके बांच सकते हैं
व्यक्ति एक – दो का नहीं
हर खास-ओ-आम का
सुख-दु:ख जांच सकते हैं
जिस दिन उस आदमी के
भीतर का गांव मर जायेगा
वह शख्स मेरी कविता का
विषय नहीं रह जायेगा
ज़िन्दगी की भेड़चाल में
जो व्यक्ति बच्चों-सी
खालिस हंसी हंस सकता है
कामरूप को पछाड़ने वाली
इस मायानगरी में
पारदर्शी बना रह सकता है
वह बदलेगा कैसे ?
आसमान भी छू ले
वह आदमी
दो को ‘दू’ ही कहेगा
दुनिया लादना चाहेगी
उस पर अपना अभिजात्य
वह खुली किताब की तरह रहेगा
आइये !
अस्ताचल की ओर जाते
इस आलोकवाही सूर्य को
सम्मान दें — एक विदा गीत गायें
और सूर्य के ऐसे ही
उगते रहने के विश्वास के साथ
जीवन-समर में धंस जायें ।
*****
बहुत अच्छी है.
By: rajni bhargava on सितम्बर 11, 2007
at 10:55 पूर्वाह्न
प्रियंकर भैया,
बहुत बढ़िया कविता…..
आगे कहना है कि;
क्यों नहीं पढ़वाते
रोज-रोज अपनी ही रचनायें
क्यों नहीं पोस्ट करते
हर दिन अपनी ही कवितायें
हम यहाँ वंचित रहें
और आपकी कवितायें
घर में ही संचित रहें
मैं आज सवाल उठाता हूँ
आपको अपनी बात बताता हूँ
कि रोज-रोज पोस्ट करें
अपनी ही कवितायें
हम सब पढ़ें
उसमें ख़ुद को खोजें
और मुलाक़ात होनेपर
थोड़ी देर के लिए ही सही
खुश हो जाएँ
आशा है;
मेरी इस शिकायत पर
थोडा सा ध्यान देंगे
मेरी बातों को
कुछ तो मान देंगे
रोज-रोज नहीं
हफ्ते में तीन दिन ही सही
विश्वास है;
कि तीन की जगह चार दिन होंगे;
क्योंकि
कवि नहीं रखता
खाता-बही
By: Shiv Kumar Mishra on सितम्बर 11, 2007
at 10:59 पूर्वाह्न
सही कहते हैं शिव कुमार. कवि इस लिये घाटे में रहता है कि खाता बही नहीं रखता. उसे मिलता कम है; बांट ज्यादा देता है!
बाकी; जीवन समर में तो आकण्ठ धंसे हैं हम, प्रियंकर जी.
By: ज्ञानदत्त पाण्डेय on सितम्बर 11, 2007
at 11:07 पूर्वाह्न
बेहतरीन कविता.
By: anamdas on सितम्बर 11, 2007
at 12:35 अपराह्न
बहुत सुन्दर ! शिव कुमार जी की आवाज से हम भी आवाज मिलाते हैं ।
घुघूती बासूती
By: ghughutibasuti on सितम्बर 11, 2007
at 12:38 अपराह्न
@ शिवकुमार मिश्र : कविता से भी चढती हुई तो आपकी काव्य-टिप्पणी है मिसिर जी . स्मरणशक्ति तो जबर्दस्त है ही, भीतर का कवि भी जाग्रत है,यह सिद्ध हुआ .
@ रजनी जी,ज्ञान जी,अनामदास जी और घुघुती जी : पीठ थपथपाने के लिए आभार .
By: प्रियंकर on सितम्बर 11, 2007
at 12:49 अपराह्न
बढ़िया है कविता! शिवकुमारजी की टिपप्णी भी धांसू है।
By: अनूप शुक्ल on सितम्बर 11, 2007
at 12:52 अपराह्न
अच्छी कविता । और अच्छी कविता का अनहदनाद देर तक रहता है।
By: बोधिसत्व on सितम्बर 11, 2007
at 3:02 अपराह्न
वाह! बहुत बढ़िया
By: Pratik Pandey on सितम्बर 11, 2007
at 3:15 अपराह्न
बहुत सुंदर।
अभी तो बहुत कवितायें लिखनी बाकी हैं….इस व्यक्तित्व की आयु थोड़ी लम्बी है।
By: Beji on सितम्बर 11, 2007
at 5:10 अपराह्न
बढ़िया है.. आज आप की एक और कविता का उल्लेख अनिल हिन्दुस्तानी ने अपनी डायरी में भी किया है.. नज़र मार लीजियेगा..
http://diaryofanindian.blogspot.com/2007/09/blog-post_407.html
By: अभय तिवारी on सितम्बर 12, 2007
at 4:21 पूर्वाह्न
कुछ ढीली सी लगी। अपने प्रति भी उतनी ही निर्ममता बरतें, जितनी निरंजन श्रोत्रिय पर बरतकर मुझे मुग्ध कर दिया था।
By: chandrabhushan on सितम्बर 12, 2007
at 5:23 पूर्वाह्न
@ अनूप,बोधिसत्व,प्रतीक,बेजी और अभय : फ़राखदिली के लिए शुक्रिया .
@ चंद्रभूषण : प्रिय भाई! आप ठीक कह रहे हैं . पर यह भी ध्यान रखें कि इस कविता को किसी नामी-गिरामी समीक्षक-आलोचक ने महान नहीं बताया है . यहां तक कि आपने भी नहीं . बस ब्लॉग के कुछ मित्र गण हैं जो मन रखने के लिए और उत्साह बढाने के लिए पीठ थपथपाते रहते हैं . कविताएं कैसी और किस पाए की हैं,यह वे भी जानते हैं और मैं भी. अतः किसी किस्म का मुगालता नहीं है . फिर भी ‘सबसे बुरा दिन’,’प्रतीत्य समुत्पाद’,’कहता है गुरु ग्यानी’या ‘अटपटा छंद’जैसी कविताओं पर आपकी तवज़्जोह चाहूंगा और टिप्पणी भी . उस समीक्षात्मक टिप्पणी को आप अब तक याद रखे हुए हैं,यह जानकर ही सुख का अनुभव होता है . उसके लिए मेरा आभार अभय और अविनाश को जाता है .
By: प्रियंकर on सितम्बर 12, 2007
at 7:48 पूर्वाह्न
देर से आये मगर पूरा मजा पाये..इस बेहतरीन कविता का भी और टिप्पणियों का भी. कभी कभी देर से आना भी लाभदायक हो जाता है.
By: समीर लाल on सितम्बर 12, 2007
at 1:47 अपराह्न