यकीनों की जल्दबाज़ी से
एक बार खबर उड़ी
कि कविता अब कविता नहीं रही
और यूं फैली
कि कविता अब नहीं रही !
यकीन करनेवालों ने यकीन कर लिया
कि कविता मर गई
लेकिन शक करने वालों ने शक किया
कि ऐसा हो ही नहीं सकता
और इस तरह बच गई कविता की जान
ऐसा पहली बार नहीं हुआ
कि यकीनों की जल्दबाज़ी से
महज़ एक शक ने बचा लिया हो
किसी बेगुनाह को ।
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खूबसूरत अहसास.
By: kakesh on सितम्बर 27, 2007
at 6:30 पूर्वाह्न
कभी गाड़ी नाव पर
कभी नाव गाड़ी पर
बस गनीमत है – बच निकलते हैं
कभी यकीन से और
कभी शक से!
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सोचने को कुरेदती अच्छी कविता.
By: ज्ञानदत पाण्डेय on सितम्बर 27, 2007
at 6:33 पूर्वाह्न
दुनियां
कैसी हो गयी है कि;
किसी को बचाने के लिए
शक सामने आता है
ऎसी परिस्थिति पर
यकीन नहीं आता है
बहुत ही बढ़िया प्रस्तुति.
By: Shiv Kumar Mishra on सितम्बर 27, 2007
at 6:54 पूर्वाह्न
एक सशक्त कविता पढ़ाने के लिए धन्यवाद ।
By: अफ़लातून on सितम्बर 27, 2007
at 7:53 पूर्वाह्न
ACHCHA HAI. AAPAKA KAM OUR KUNVAR JI KI KAVITA.
KAMANA HAI- KAVITA BACHI RAHE. SAMBEDANA BACHI RAHE OUR BACHI RAHE INSANIYAT…
By: shailendra on सितम्बर 27, 2007
at 1:52 अपराह्न
बहुत बहुत धन्यवाद जी,
कॊशिश करूँगा कि हर दिन आप का चिट्ठा पढूँ और टिप्पणी भी करूँ। आप मेरी संरचनात्मक त्रुटियाँ दीजिएगा, यही मेरी प्रार्थना है।
By: Raji Chandrasekhar on अक्टूबर 24, 2007
at 1:11 अपराह्न