प्रणव पाल की एक बांग्ला कविता
अनुवाद : समीर रायचौधुरी
तुमुलिनी
कहीं कुछ हलचल है
आंखों से हरेपन को उतारती पीचवाली सड़क पर जंगल की सहेली …
सुरीले कंठ से होकर उतर रही है जो भरी हुई नदी
जो अम्पायर लिख रहा है गैलरी की रुलाई,उसकी सीमाओं को तोड़ दो
तुम्हें पता है गेंद का रहस्य ?
बज उठेंगे मैदान के पांव, क्रिकेट की पिच …
धूप भरी इस दोपहर में ऊंघती परछाईं से ढंक रहे हो चेहरे को
राजनीति के जनानेपन को छोड़ो, आंचल की कला को बचाओ
महाकाश तुम्हारे दोनों हाथों में फंसा है ।
रिक्शे पर चढने से पहले जान लो पैडल का दुख
साइकिल का खाली कैरियर
अपने प्रभु को पुकार रहा है …
कीर्तनियों की लय में गाता है पदावली
पुल को पार करती दूर जा रही हैं रिक्शे की विलासिताएं ।
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( बांग्ला लघु पत्रिका हवा ४९ के पोस्ट-मॉडर्न बांग्ला पोएट्री पर केन्द्रित अंक ‘अधुनान्तिक बांग्ला कविता’ से साभार )
रिक्शे पर चढने से पहले जान लो पैडल का दुख
साइकिल का खाली कैरियर
मार्मिक कविता….
By: बोधिसत्व on अक्टूबर 30, 2007
at 4:50 अपराह्न