प्रियंकर की एक कविता
शब्द जो शब्द भर नहीं है
प्यार !
एक बहुउद्धृत शब्द !
यह निरा शब्द ही तो है
जैसे अंक हैं
गणित में ।
नहीं !
मैं शब्द के संगीत को
पा नहीं सका था
और अर्थ की सतहों के पार
जा नहीं सका था
शब्द जो बहता है
सदानीरा सा
शब्द जो मचलता है
लय है
शब्द जो अंकुर है
पराजय का
शब्द जो स्वयं ही
जय है
शब्द जो मधुमास को
पुकार लाते हैं
शब्द जो गंध की नदी से
पार आते हैं
शब्द जो किसी साज से
बज सकें
शब्द जो किसी के होठों पर
सज सकें
शब्द जो दहकता है
पलाश सा
शब्द जो महकता है
गुलाब सा
शब्द चाहिए जिसे —
उपयुक्त माध्यम
उपयुक्त समय
शब्द चाहिए जिसे —
उपयुक्त श्रोता
उपयुक्त जगह
जहां से शब्द
किसी हरसिंगार सा
झर सके
और हर शब्द-याचक
अपनी झोली
भर सके
जब तुम पहचान रही थीं
अवसर की उपयुक्तता
मैं वहीं समय के प्रवाह में
पतवार थामे खड़ा था
और ये शब्द प्यार
तुम्हारें होठों पर
मुस्कराहट की तरह जड़ा था
तुमने इसे
किसी भी उद्देश्य से कहा हो
मैंने इस शब्द-सुरा को
पूरी तन्मयता से पिया है
सम्भव है — तुमने फिर
सोचा भी न हो
मैंने तो
पूरी गम्भीरता से जिया है ।
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जब तुम पहचान रही थीं
अवसर की उपयुक्तता
मैं वहीं समय के प्रवाह में
पतवार थामे खड़ा था
और ये शब्द प्यार
तुम्हारें होठों पर
मुस्कराहट की तरह जड़ा था
बहुत बहुत सुंदर….आप बहुत ईमानदारी से कविता लिखते हैं….आपकी सभी कवितायें बहुत सुंदर हैं।
By: Beji on नवम्बर 1, 2007
at 5:45 पूर्वाह्न
बहुत बेहतर शब्द साधना….
जारी रहे..भाई
By: बोधिसत्व on नवम्बर 1, 2007
at 6:19 पूर्वाह्न
सम्भव है – तुमने फिर
सोचा भी न हो
मैंने तो
पूरी गम्भीरता से जिया है ।
सुंदर !
By: प्रत्यक्षा on नवम्बर 1, 2007
at 6:46 पूर्वाह्न
bahut sundar…
aanand-vibhor hoon….
badhaee…
By: gita pandut on नवम्बर 1, 2007
at 10:48 पूर्वाह्न
क्या बात है !!! मन मोह लिया आपकी कविता ने…शब्दों की कविता ने निशब्द कर दिया…
By: reetesh gupta on नवम्बर 1, 2007
at 12:39 अपराह्न
मैंने तो
पूरी गम्भीरता से जिया है ।
–क्या बात है. बहुत ही उम्दा रचना, प्रियंकर भाई. बहुत बधाई.
By: समीर लाल on नवम्बर 1, 2007
at 2:00 अपराह्न
शब्द – एक अद्भुत संकलन। गणित से प्रारम्भ हुआ प्रेम हृदय में उतर गया।
बन्धु, आज फिर कहूंगा – आपकी कलम चाहिये।
By: ज्ञानदत्त पाण्डेय on नवम्बर 1, 2007
at 2:52 अपराह्न
तो डूबे हुऎ हैं महाराज प्यार में.. बहुत सही!!
By: अभय तिवारी on नवम्बर 1, 2007
at 2:53 अपराह्न
शब्द सबकुछ है। लेना-देना सब शब्द से ही होता है।
By: हर्षवर्धन on नवम्बर 2, 2007
at 1:58 पूर्वाह्न
bharpoor kavita hai. shabd shabd bol raha hai. Jar Man ko khol raha hai. shabd na hote to hum anjan hote.
Badhayee
By: sarhashmi on नवम्बर 2, 2007
at 4:49 पूर्वाह्न
आपके शब्दों को पढ़ते हुए हम पाठक भी ऐसा ही कुछ महसूस करते हैं और मन ही मन कहते हैं –
By: सृजन शिल्पी on नवम्बर 2, 2007
at 12:55 अपराह्न
बहुत सुन्दर कविता है.
By: रजनी भार्गव on फ़रवरी 5, 2008
at 1:04 अपराह्न