( अजंता देव की सद्यप्रकाशित काव्य-पुस्तिका ‘एक नगरवधु की आत्मकथा’ से साभार . अनुसृजन का आभास देती यह काव्य-पुस्तिका सृजन का ऐसा अनुपम उदाहरण है जो तथाकथित (सतही) मौलिकता से कहीं लाख गुना बेहतर है . देशज काव्य-परंपरा की अद्भुत अनुगूंज अपने में समोए इस संकलन की कविताओं में आपको भर्तृहरि, अमीर खुसरो, गालिब, नज़ीर यहां तक कि राजकमल चौधरी तक की काव्य-भाषा के रचनात्मक छींटे और अकुंठ संदर्भ मिलेंगे . और वह काव्य-संगीत मिलेगा जो वैदिक-औपनिषदिक छंदों और हमारी सामासिक संस्कृति — हमारी गंगा-जमनी तहजीब — से लेकर हमारे लोकगीतों तक में व्याप्त है . यह वह काव्य-परम्परा है जिसके तहत भारत का एक सामान्य चरवाहा भी ‘प्यारे मन की गठरी खोल , जिसमें लाल भरे अनमोल’ जैसा लोकगीत गाकर अन्ततः परम्परा-प्रदत्त औपनिषदिक दर्शन का ही गायन करता है . इसमें वह सहजता है जो विद्वानों के दर्शन को लोक के जीवन-दर्शन में ढाल देती है . इस काव्य-संकलन का मितकथन और इसकी सूत्रात्मक शैली — ‘एपीग्रैमैटिक स्टाइल’ — अभिव्यक्ति को और अधिक प्रभावकारी बना देती है . लोक और शास्त्र इस काव्य संकलन की दो आंखें हैं . — प्रियंकर )
गज़ल के रंग में
रात अंधेरी तारे गुम
इस पल सबसे प्यारे तुम ।
जितना हमसे दूर हुए
उतने हुए हमारे तुम ।
घास फूल चिड़िया आकाश
सबमें नदी किनारे तुम ।
अनजाने में जीत गए
जानबूझ कर हारे तुम ।
मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा
मेरे पंज पियारे तुम ।
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सुंदर रचना है. समस्या न हो तो संकलन में से क्या कुछ दो-चार और रचनाएं प्रकाशित कर सकते हैं?
By: रवि on अप्रैल 22, 2008
at 6:41 पूर्वाह्न
अरे, यह तो अनूठा भाषा-प्रयोग है!
By: ज्ञानदत्त पाण्डेय on अप्रैल 22, 2008
at 10:31 पूर्वाह्न
यह बेहद इत्तेफ़ाक़ की बात है कि ‘एक नगरवधु की आत्मकथा’ मेरे पास अभी कुछ मिनट पहले कूरियर द्वारा पहुंची और किताब खोलते ही यही वाली कविता सबसे पहले मेरी
आंखों के सामने आई.
किताब बहुत छोटी होने के बावजूद बहुत सारा अपने भीतर समोए हुए है. उम्मीद है आप अपने ब्लॉग पर इस में से कुछ और लगाएंगे. फ़िलहाल इस कविता को सब के सामने
रखने हेतु धन्यवाद.
By: Ashok Pande on अप्रैल 22, 2008
at 11:01 पूर्वाह्न
सुन्दर गज़ल है, पर अभी फायरफॉक्स में सही दिखने की समस्या हल नहीं हुई।
By: दिनेशराय द्विवेदी on अप्रैल 22, 2008
at 12:48 अपराह्न
बहुत सुन्दर प्रस्तुति-आभार.
By: समीर लाल on अप्रैल 22, 2008
at 2:12 अपराह्न
vaah! kya baat hai..aur bhi padhvaaiye
By: parulk on अप्रैल 22, 2008
at 4:48 अपराह्न
सुंदर प्रस्तुति के लिए बधाई.
By: Atul Kumar on अप्रैल 22, 2008
at 5:31 अपराह्न
लाजवाब रचना. गज़ब का शब्द प्रयोग. वाह…वा
नीरज
By: neeraj1950 on अप्रैल 23, 2008
at 2:45 पूर्वाह्न