जितेन्द्र श्रीवास्तव की एक कविता
तुम्हारी चुप्पी में
चुप रहो
बस चुप रहो
यह रात की धुन है
इसे यूं ही बजने दो
आहिस्ता चलो
इस बेला में
समय को मौन का उपहार दो
रात के इस राग में
झींगुर विसर्जित कर रहा है
अपना राग
यह विलाप नहीं
फिर भी
कुएं की उदासी
आंकी जा सकती है इस आवाज में
यह रात की धुन है
इसे यूं ही बजने दो
और ताक सको जितनी दूर
ताको चांदनी में
छू सको तो छू लो उसे
त्वचा की तरह
पर चुप रहो
तुम्हारी इस चुप्पी में
दूसरे के अस्तित्व का सम्मान है ।
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कवि परिचय : ‘अनभै कथा’ के युवा कवि . इग्नू में प्राध्यापक . भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित .
सन्नाटे के राग में बुनी एक सुन्दर कविता।
प्रियंकर जी, यह बताइये कि हम ऐसी अनुभूति कैसे करें और कैसे लिखें।
By: ज्ञानदत्त पाण्डेय on अप्रैल 24, 2008
at 10:05 पूर्वाह्न
अनहद नाद तोड़ने के लिए यह चुप्पी बहुत काम की है….अच्छी कविता है….कवि को बधाई…
By: बोधिसत्व on अप्रैल 24, 2008
at 1:03 अपराह्न