मानिक बच्छावत की एक कविता
भोर का तारा
यह नीला आसमान है
और दूर कहीं उगा है
वह तारा
भोर होने में अभी देर है
तेजस्वी लग रहा है वह तारा
पूरब से छिटक रहा है उजाला
और नीला आसमान झिलमिलाने लगा है
सूर्य के स्वागत में
सूर्य निकलेगा
थोड़ी देर में पूरा आसमान
भर जाएगा गर्म उजाले से
तारा खो जाएगा
लेकिन सांझ के बाद
जब थका-हारा सूर्य सो जाएगा
उसे जगाने आएगा
भोर का यही तेजस्वी तारा ।
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( काव्य संकलन ‘पीड़ित चेहरों का मर्म’ से साभार )
priyankar ji khoob hai.
By: विजय गौड on अप्रैल 25, 2008
at 1:17 अपराह्न
bahut sundar kavita hai
By: mehek on अप्रैल 25, 2008
at 2:09 अपराह्न
कविता सुन्दर है, इसे पढ़ कर एक राजस्थानी गीतकार का गीत याद रहा है। “भोर का तारा उगा है, नीन्द की साँकळ उतारो, किरन देहरी पर खड़ी है, जाग जाने की घड़ी है।”
By: दिनेशराय द्विवेदी on अप्रैल 25, 2008
at 7:17 अपराह्न
सुकुआ बचपन से ही मेस्मराइज करता रहा है। और यह पोस्ट भी वही कर रही है।
By: ज्ञानदत्त पाण्डेय on अप्रैल 26, 2008
at 2:34 पूर्वाह्न