जितेन्द्र श्रीवास्तव की एक कविता
धूप
धूप किताबों के ऊपर है
या
भीतर कहीं उसमें
कहना
मुश्किल है इस समय
इस समय मुश्किल है
कहना
कि किताबें नहा रही हैं धूप में
या धूप किताबों में
पर यह देखना और महसूसना
नहीं मुश्किल
कि मुस्कुरा रही हैं किताबें
धूप की तरह
और धूप गरमा रही है
किताबों की तरह ।
*****
पर यह देखना और महसूसना
नहीं मुश्किल
कि मुस्कुरा रही हैं किताबें
धूप की तरह
और धूप गरमा रही है
किताबों की तरह ।
वाह।।।
-राजीव रंजन प्रसाद
By: राजीव रंजन प्रसाद on मई 1, 2008
at 12:02 अपराह्न
पर यह देखना और महसूसना
नहीं मुश्किल
कि मुस्कुरा रही हैं किताबें
धूप की तरह
और धूप गरमा रही है
किताबों की तरह ।
ye panktiya achhi lagi..
By: anurag arya on मई 1, 2008
at 1:12 अपराह्न
बहुत सुन्दर.
By: समीर लाल on मई 1, 2008
at 1:37 अपराह्न
कविता धूप की तरह ही जानदार है। लेकिन वर्ड में ले जाकर पढनी पड़ रही है। टेम्पलेट में लोंचा है। देखिए जरा।
By: दिनेशराय द्विवेदी on मई 1, 2008
at 1:42 अपराह्न
जिन सज्जन ने लिखी है, उनका पुस्तक प्रेम महसूस कर रहा हूं। कविता में ऊष्मा है।
By: ज्ञानदत्त पाण्डेय on मई 1, 2008
at 2:01 अपराह्न
सुन्दर अति सुन्दर। एक चीज पूछ्नी थी कि क्या आपने एक कविता “बदचलन लड्की” के नाम से लिखी थी किसी पेपर या किताब मे। मै उसे काफी दिनो से देख रहा हूँ। पर पता नही कहाँ गुम हो गई है। मुझे पंसद थी।
By: sushil on मई 1, 2008
at 2:28 अपराह्न
waah!bahut acchhii lagi…
By: parulk on मई 1, 2008
at 4:21 अपराह्न
bahut khub sundar
By: mehhekk on मई 1, 2008
at 4:41 अपराह्न