Posted by: PRIYANKAR | मई 1, 2008

धूप

जितेन्द्र श्रीवास्तव की एक कविता

 

धूप

 

धूप किताबों के ऊपर है

या

भीतर कहीं उसमें

कहना

मुश्किल है इस समय

 

इस समय मुश्किल है

कहना

कि किताबें नहा रही हैं धूप में

या धूप किताबों में 

 

पर यह देखना और महसूसना

नहीं मुश्किल

कि मुस्कुरा रही हैं किताबें

धूप की तरह

और धूप गरमा रही है

किताबों की तरह ।

 

*****


Responses

  1. पर यह देखना और महसूसना
    नहीं मुश्किल
    कि मुस्कुरा रही हैं किताबें
    धूप की तरह
    और धूप गरमा रही है
    किताबों की तरह ।

    वाह।।।

    -राजीव रंजन प्रसाद

  2. पर यह देखना और महसूसना

    नहीं मुश्किल

    कि मुस्कुरा रही हैं किताबें

    धूप की तरह

    और धूप गरमा रही है

    किताबों की तरह ।

    ye panktiya achhi lagi..

  3. बहुत सुन्दर.

  4. कविता धूप की तरह ही जानदार है। लेकिन वर्ड में ले जाकर पढनी पड़ रही है। टेम्पलेट में लोंचा है। देखिए जरा।

  5. जिन सज्जन ने लिखी है, उनका पुस्तक प्रेम महसूस कर रहा हूं। कविता में ऊष्मा है।

  6. सुन्दर अति सुन्दर। एक चीज पूछ्नी थी कि क्या आपने एक कविता “बदचलन लड्की” के नाम से लिखी थी किसी पेपर या किताब मे। मै उसे काफी दिनो से देख रहा हूँ। पर पता नही कहाँ गुम हो गई है। मुझे पंसद थी।

  7. waah!bahut acchhii lagi…

  8. bahut khub sundar


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