देवव्रत जोशी का एक गीत/नवगीत
कुंभनदास
कुंभनदास गए रजधानी ।
खूब लिखा औ नाम कमाया
दाम नहीं जीवन में पाया
राजाजी ने अब बुलवाया
भारी मन, जाने की ठानी ।
कुंभन पहुंचे पैयां-पैयां
देखा चोखा रूप-रुपैया
लेकिन कहां आ गए भैया
यहां नहीं मिलता गुड़-धानी ।
‘धत्तेरे की’ कह कर लौटे
लोग यहां के सिक्के खोटे
बिन पैंदे के हैं सब लोटे
जमना है पर खारा पानी ।
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( वागर्थ के जनवरी २००२ अंक से साभार )
मजेदार गीत!
By: दिनेशराय द्विवेदी on मई 6, 2008
at 9:32 पूर्वाह्न
कुम्भन दास गये – और लौट के बुद्धू घर को आये।! हम भी गये थे रजधानी और चोटिल हो कर आये!
By: Gyan Dutt Pandey on मई 6, 2008
at 9:39 पूर्वाह्न
बढ़िया है.
By: समीर लाल on मई 6, 2008
at 2:24 अपराह्न
हमेशा की तरह सुंदर ।
By: यूनुस on मई 6, 2008
at 2:24 अपराह्न
आवत-जात पनैह्या टूटी, बिसर गयो हरिनाम.. सन्तन को कहा सीकरी काम?
By: अभय तिवारी on मई 7, 2008
at 4:38 पूर्वाह्न
vah vaah vaaah, majaa aa gayaa jI
By: arun on मई 7, 2008
at 6:53 पूर्वाह्न