भवानी भाई की एक कविता
लाओ अपना हाथ
लाओ अपना हाथ मेरे हाथ में दो
नए क्षितिजों तक चलेंगे
हाथ में हाथ डालकर
सूरज से मिलेंगे
इसके पहले भी
चला हूं लेकर हाथ में हाथ
मगर वे हाथ
किरनों के थे फूलों के थे
सावन के
सरितामय कूलों के थे
तुम्हारे हाथ
उनसे नए हैं अलग हैं
एक अलग तरह से ज्यादा सजग हैं
वे उन सबसे नए हैं
सख्त हैं तकलीफ़देह हैं
जवान हैं
मैं तुम्हारे हाथ
अपने हाथों में लेना चाहता हूं
नए क्षितिज
तुम्हें देना चाहता हूं
खुद पाना चाहता हूं
तुम्हारा हाथ अपने हाथ में लेकर
मैं सब जगह जाना चाहता हूं !
दो अपना हाथ मेरे हाथ में
नए क्षितिजों तक चलेंगे
साथ-साथ सूरज से मिलेंगे !
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waahhhh..aabhaar
By: parulk on मई 14, 2008
at 7:39 पूर्वाह्न
तुम्हारा हाथ अपने हाथ में लेकर
मैं सब जगह जाना चाहता हूं !
दो अपना हाथ मेरे हाथ में
नए क्षितिजों तक चलेंगे
साथ-साथ सूरज से मिलेंगे !
दुर्लभ और बेहतरीन रचना से परिचित कराने का आभार…
***राजीव रंजन प्रसाद
By: राजीव रंजन प्रसाद on मई 14, 2008
at 8:07 पूर्वाह्न
आभार।
By: दिनेशराय द्विवेदी on मई 14, 2008
at 10:31 पूर्वाह्न
खूब है.
By: विजय गौड on मई 14, 2008
at 1:44 अपराह्न
हाथ में हाथ डालकर
सूरज से मिलेंगे
bahut khoob…kavita bantne ke liye shukriya……
By: anurag arya on मई 14, 2008
at 1:55 अपराह्न
बहुत उम्दा, आभार.
By: समीर लाल on मई 14, 2008
at 5:21 अपराह्न
अनूठी सोच ….अप्रतिम कल्पना
फिर भी धरातल से जुड़ी लेकिन
क्षितिज से मिलने की आश्वस्ति देती
पुकार है यह कवि की !
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आपने यहाँ भेजी, हमने पढी ही नहीं
सुन भी ली ये पुकार
विश्वास कीजिये.
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बोलती हुई कविता.
आभार
डा.चंद्रकुमार जैन
By: DR. CHANDRAKUMAR JAIN on मई 21, 2008
at 1:18 अपराह्न
[…] साभार : अनहदनाद […]
By: दोनों मूरख , दोनों अक्खड़ / भवानीप्रसाद मिश्र | शैशव on फ़रवरी 18, 2017
at 12:05 अपराह्न