मृणाल पाण्डे की एक कविता
अल्मोड़ा-साहित्य ३
हरी ‘व्यथित’ औ’ नरी ‘अकेला’ कभूं कभूं
लब खोलै थे,
जब जब धीयां पास गुजरतां, ‘मर गए जानी’
बोलै थे ॥
हरित ‘सशंक’ औ’ मोहन हुड़किया सबकी
अपनी थी औकात,
अपने-अपने छंद छतरपति बन बन होली खेलैं
थे ॥
फितरत उनकी ‘पंत’ , ‘निराला’ , किस्मत उनकी
क्लर्काई ,
खुदै लिखैं औ’ खुदै छपाएं , खुदै उसी पै बोलै
थे ॥
घर की बहुआं कभी-कभी जब बैठक कमरा
झाड़ै थीं ,
मार झपाका गड्डी-गड्डी कविता-फविता फाड़ै
थीं ॥
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( तीन कविताओं की सीरीज़ की अंतिम कड़ी; जनसत्ता सबरंग, 05 अगस्त 2001 से साभार )
kya baat hai.hazoor kahan se laye hai…maja aa gaya.
By: anurag arya on मई 19, 2008
at 8:39 पूर्वाह्न
क्या बात है भाई. बहुत ही उम्दा रचना. बहुत बहुत शुक्रिया पढ़वाने का.
By: MEET on मई 19, 2008
at 9:24 पूर्वाह्न
अच्छी कविता है.
By: समीर लाल on मई 19, 2008
at 12:29 अपराह्न
भाई, उम्दा शैली! आदरणीया मृणालजी को यहाँ फिर से पढ़वाने का शुक्रिया!
By: vijayshankar chaturvedi on मई 19, 2008
at 2:55 अपराह्न
हम तो यही बताने आये हैं कि पहली बार फॉयरफॉक्स में आपका ब्लॉग सही सही तरीके से पढ़ लिया। और यह मृणाल पाण्डे जी की कविता से होना था जो बहुत सुन्दर है।
By: Gyan Dutt Pandey on मई 20, 2008
at 9:03 अपराह्न
क्या बात है भाई. बहुत ही अच्छी कविता है.
By: बोधिसत्व on मई 21, 2008
at 5:13 पूर्वाह्न
फितरत उनकी ‘पंत’ , ‘निराला’ , किस्मत उनकी
क्लर्काई ,
खुदै लिखैं औ’ खुदै छपाएं , खुदै उसी पै बोलै
थे ॥
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कमाल है !
ऐसी फितरत और ऐसी
मजबूर सृजनात्मकता तो
बड़ी-बड़ी महफिलों में भी देखी है.
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ख़ुद लिखने और ख़ुद वाह ! वाह !!
करने और करवाने की कवायद में
जुटे हुए महारथी भी तो मिल जायेंगे !
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धारदार कविता.
कवियत्री को बधाई…प्रस्तुति पर साधुवाद .
डा.चंद्रकुमार जैन
By: DR. CHANDRAKUMAR JAIN on मई 21, 2008
at 1:31 अपराह्न
संशोधन….कवियत्री नहीं, कवयित्री.
धन्यवाद.
डा.चंद्रकुमार जैन
By: DR. CHANDRAKUMAR JAIN on मई 21, 2008
at 1:33 अपराह्न