बोधिसत्व की एक कविता
निषिद्ध
कोई याद आता है
आरती के समय
भोग लगाते समय
जलाभिषेक के समय
नींद के समय
कभी-कभी एकदम रात में
जब घंटियां रो रही होती हैं पूजा की
जब शंख भीतर ही भीतर
सुबक रहे होते हैं
कोई याद आता है, निषिद्ध !
****
बोधिसत्व की एक कविता
निषिद्ध
कोई याद आता है
आरती के समय
भोग लगाते समय
जलाभिषेक के समय
नींद के समय
कभी-कभी एकदम रात में
जब घंटियां रो रही होती हैं पूजा की
जब शंख भीतर ही भीतर
सुबक रहे होते हैं
कोई याद आता है, निषिद्ध !
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कविताएं/Poems में प्रकाशित किया गया | टैग: बोधिसत्व
सुंदर रचना।
By: प्रभाकर पाण्डेय on जुलाई 3, 2008
at 2:23 अपराह्न
पहचान कौन?
मित्र बोधि की गम्भीर कविता से मज़ाक करने की आज़ादी ले रहा हूँ..
By: अभय तिवारी on जुलाई 3, 2008
at 3:03 अपराह्न
सुंदर कविता है। आपका चिट्ठा अच्छी कविताओं के पठन-पाठन का अड्डा साबित हो रहा है।
By: अशोक पाण्डेय on जुलाई 3, 2008
at 3:17 अपराह्न
जी !
By: अफ़लातून on जुलाई 3, 2008
at 3:41 अपराह्न
अच्छी लगी कविता …धन्यवाद
By: reetesh gupta on जुलाई 3, 2008
at 4:34 अपराह्न
वाह ! बहुत बढ़िया. शुक्रिया.
By: मीत on जुलाई 3, 2008
at 4:56 अपराह्न
वाह!! बोधि भाई की जय, उम्दा रचना. प्रियंकर जी का आभार.
By: समीर लाल on जुलाई 3, 2008
at 9:36 अपराह्न
पहचान लिए! जिन को पण्डित जी दोने में भर रोज मंदिर के बाहर प्रसाद पहुँचाते थे, और देने जाना होता था मुझे। दोनों ही मजबूर थे। बीच में दोनों को अलग करने वाली समाज की दीवारें खड़ी थीं।
By: दिनेशराय द्विवेदी on जुलाई 4, 2008
at 2:21 पूर्वाह्न
सुंदर!!!!
By: parul on जुलाई 4, 2008
at 8:16 पूर्वाह्न
सच में, यह कवि ही है जो शंख के सुबुकने की आवाज सुन लेता है। हमें तो न शोर सुनाई देता है, न सन्नाटा।
अच्छी लगी कविता।
By: Gyandutt Pandey on जुलाई 4, 2008
at 2:07 अपराह्न