Posted by: PRIYANKAR | जुलाई 4, 2008

विस्थापन

एकांत श्रीवास्तव की एक कविता

 

विस्थापन

 

मैं बहुत दूर से उड़कर आया पत्ता हूं

 

यहां की हवाओं में भटकता

यहां के समुद्र, पहाड़ और वृक्षों के लिए

अपरिचित, अजान, अजनबी

 

जैसे दूर से आती हैं समुद्री हवाएं

दूर से आते हैं प्रवासी पक्षी

सुदूर अरण्य से आती है गंध

प्राचीन पुष्प की

मैं दूर से उड़कर आया पत्ता हूं

 

तपा हूं मैं भी

प्रचंड अग्नि में देव भास्कर की

प्रचंड प्रभंजन ने चूमा है मेरा भी ललाट

जुड़ना चाहता हूं फिर किसी टहनी से

पाना चाहता हूं रंग वसंत का ललछौंह

 

नई भूमि

नई वनस्पति को

करना चाहता हूं प्रणाम

मैं दूर से उड़कर आया पत्ता हूं ।

 

****


Responses

  1. सुंदर भाव लिये है कविता …अच्छी लगी…..धन्यवाद

  2. बहुत अच्छी कविता। बहुत दिनों बाद एकान्त जी को पढ़ा। अच्छा लगा

  3. सुंदर रचना!

  4. दूर से आया पत्ता तो नव जन्म ले कर ही जुड़ सकता है। लेकिन जुड़ने की चाह है तो जुड़ेगा ही – जमीन से।

  5. uttaranchal ki sunder bhumi bahen failaye hai aapke swagat men………dawanal se parn vihin ho gaye hain kai-kai hare per(tree).


एक उत्तर दें

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  बदले )

Twitter picture

You are commenting using your Twitter account. Log Out /  बदले )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  बदले )

Connecting to %s

श्रेणी

%d bloggers like this: