एकांत श्रीवास्तव की एक कविता
विस्थापन
मैं बहुत दूर से उड़कर आया पत्ता हूं
यहां की हवाओं में भटकता
यहां के समुद्र, पहाड़ और वृक्षों के लिए
अपरिचित, अजान, अजनबी
जैसे दूर से आती हैं समुद्री हवाएं
दूर से आते हैं प्रवासी पक्षी
सुदूर अरण्य से आती है गंध
प्राचीन पुष्प की
मैं दूर से उड़कर आया पत्ता हूं
तपा हूं मैं भी
प्रचंड अग्नि में देव भास्कर की
प्रचंड प्रभंजन ने चूमा है मेरा भी ललाट
जुड़ना चाहता हूं फिर किसी टहनी से
पाना चाहता हूं रंग वसंत का ललछौंह
नई भूमि
नई वनस्पति को
करना चाहता हूं प्रणाम
मैं दूर से उड़कर आया पत्ता हूं ।
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सुंदर भाव लिये है कविता …अच्छी लगी…..धन्यवाद
By: reetesh gupta on जुलाई 4, 2008
at 11:52 पूर्वाह्न
बहुत अच्छी कविता। बहुत दिनों बाद एकान्त जी को पढ़ा। अच्छा लगा
By: सत्येंद्र प्रसाद श्रीवास्तव on जुलाई 4, 2008
at 12:45 अपराह्न
सुंदर रचना!
By: दिनेशराय द्विवेदी on जुलाई 4, 2008
at 2:02 अपराह्न
दूर से आया पत्ता तो नव जन्म ले कर ही जुड़ सकता है। लेकिन जुड़ने की चाह है तो जुड़ेगा ही – जमीन से।
By: Gyandutt Pandey on जुलाई 4, 2008
at 2:09 अपराह्न
uttaranchal ki sunder bhumi bahen failaye hai aapke swagat men………dawanal se parn vihin ho gaye hain kai-kai hare per(tree).
By: sampoorna pokhriyal on मई 30, 2009
at 8:20 पूर्वाह्न