कुमार अम्बुज की एक कविता
किवाड़
ये सिर्फ़ किवाड़ नहीं हैं
जब ये हिलते हैं
माँ हिल जाती है
और चौकस आँखों से
देखती है -‘क्या हुआ?’
मोटी साँकल की
चार कड़ियों में
एक पूरी उमर और स्मृतियाँ
बँधी हुई हैं
जब साँकल बजती है
बहुत कुछ बज जाता है घर में
इन किवाड़ों पर
चंदा सूरज
और नाग देवता बने हैं
एक विश्वास और सुरक्षा
खुदी हुई है इन पर
इन्हे देखकर हमें
पिता की याद आती है
भैया जब इन्हें
बदलवाने की कहते हैं
माँ दहल जाती है
और कई रातों तक पिता
उसके सपनों में आते हैं
ये पुराने हैं
लेकिन कमज़ोर नहीं
इनके दोलन में
एक वज़नदारी है
ये जब खुलते हैं
एक पूरी दुनिया
हमारी तरफ़ खुलती है
जब ये नहीं होंगे
घर
घर नहीं रहेगा।
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* इसी कविता पर कुमार अम्बुज को भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार प्राप्त हुआ था .
सुंदर कविता!
By: दिनेशराय द्विवेदी on जुलाई 8, 2008
at 10:38 पूर्वाह्न
हमें तो अपनी आजी के कमरे का किवाड़, आला, गौंखा (गवाक्ष) और आजी खुद याद आ गयीं। आजी को द्नियां से गये कई दशक हो गये और गांव में उस कमरे को देखे एक दशक से ज्यादा।
अब शायद वहां खण्डहर ही हो!
बहुत याद दिलाऊ कविता।
By: Gyan Dutt Pandey on जुलाई 8, 2008
at 2:33 अपराह्न
अति सुन्दर कविता!!
By: समीर लाल on जुलाई 8, 2008
at 7:02 अपराह्न