अष्टभुजा शुक्ल की एक कविता
साफ़-साफ़
जो रोशनी में खड़े होते हैं वे
अंधेरे में खड़े लोगों को
तो देख भी नहीं सकते
लेकिन अंधेरे के खड़े लोग
रोशनी में खड़े लोगों को
देखते रहते हैं साफ़-साफ़ ।
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काव्य संकलन ‘दुःस्वप्न भी आते हैं’ से साभार
तस्वीर : प्रभात खबर से साभार
सीधी सच्ची बात…बिना लाग लपेट के.
नीरज
By: neeraj1950 on जुलाई 9, 2008
at 7:18 पूर्वाह्न
बिलकुल साफ साफ,
लेकिन जैसे ही वे
प्रवेश करते हैं
रोशनी के दायरे में
उन्हें भी दिखाई देना
बंद हो जाते हैं
अंधेरे में खड़े लोग।
By: दिनेशराय द्विवेदी on जुलाई 9, 2008
at 1:15 अपराह्न
सही है; अंधेरे की अच्छाइयां भी हैं।
By: Gyan Dutt Pandey on जुलाई 9, 2008
at 2:05 अपराह्न
शायद इसीलिए सबको,या कम से कम उनको जिनका काम अंधेरों में रहने वालों का ध्यान रखना हो, थोड़ी देर तो अंधेरे में खड़ा होना ही चाहिए।
घुघूती बासूती
By: ghughutibasuti on जुलाई 9, 2008
at 2:39 अपराह्न
सादी, सच्ची और गहरी रचना..
***राजीव रंजन प्रसाद
By: राजीव रंजन प्रसाद on जुलाई 9, 2008
at 3:56 अपराह्न
सुंदर रचना….बधाई
By: reetesh gupta on जुलाई 9, 2008
at 4:10 अपराह्न
Sometimes Truth is also poetry. – Hindi Sahitya, aadhunikhindisahitya.wordpress.com.
By: Hindi Sahitya on अक्टूबर 14, 2010
at 8:26 पूर्वाह्न
बिना लाग लपेट के सच बयानी
By: dinesh dubey on फ़रवरी 20, 2016
at 6:43 पूर्वाह्न