बोधिसत्व की एक कविता
स्त्री को देखना
दूर से पेड़ दिखता है
पत्तियां नहीं, फल नहीं
पास से दिखती हैं डालें
धूल से नहाई, संवरी ।
एक स्त्री नहीं दिखती कहीं से
न दूर से, न पास से ।
उसे चिता में
जलाकर देखो
दिखेगी तब भी नहीं ।
स्त्री को देखना उतना आसान नहीं
जितना तारे देखना या
पिंजरा देखना ।
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स्त्री दिखाई भी देती है। बस देखने वाले के पास नजर चाहिए।
By: दिनेशराय द्विवेदी on जुलाई 11, 2008
at 1:51 अपराह्न
सुजाता खीर खिलाये तो दिखे बोधिसत्व को। पर उस तरह खीर पाना भी सब के भाग्य में कहां।
By: Gyan Dutt Pandey on जुलाई 11, 2008
at 2:10 अपराह्न
Bodhi Bhai ki jai ho.
By: Sameer Lal on जुलाई 11, 2008
at 4:37 अपराह्न
शायद स्त्री वायु समान है, आवश्यक परन्तु अदृष्य !
प्रियंकर जी,
बहुत दिन से आपका चिट्ठा नहीं पढ़ पा रही हूँ। कारण यह कि मेरे कम्प्यूटर पर फायरफॉक्स ठीक से काम करता है इ एक्सप्लोरर नहीं। आपके चिट्ठे के शब्द इ एक्सप्लोरर पर ठीक से दिखते हैं फायरफॉक्स पर नहीं। आज किसी तरह इ एक्सप्लोरर पर पढ़ने में सफल हुई तो आपसे अनुरोध कर पा रही हूँ कि कुछ ऐसा कीजिए कि फायरफॉक्स पर भी आपके चिट्ठे को पढ़ा जा सके। मुझ जैसे कुछ अन्य लोग भी होंगे जो चाहकर भी आपके चिट्ठे को पढ़ नहीं पाते।
घुघूती बासूती
By: ghughutibasuti on जुलाई 11, 2008
at 8:12 अपराह्न
क्या कहूँ, खुद ही नहीं पढ़ पा रहा हूँ….आप लगातार छाप रहे हैं….आप का आभारी हूँ….
By: बोधिसत्व on जुलाई 12, 2008
at 9:52 अपराह्न